SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - सूत्रकृतांग उत्तर - सूत्रकृतांग में लोक, अलोक, लोकालोक, जीव, अजीव, जीवाजीव तथा स्वसमय - जैन सिद्धांत, परसमय- अजैन सिद्धांत, स्व पर समय-उभय सिद्धांत की जानकारी दी गई है। विवेचन - जो अर्हन्त भगवन्त के वचन को सूचित करे, वह 'सूत्र' है। जिसे इस प्रकार सूत्र रूप में बनाया गया हो, वह 'सूत्रकृत' है । (इस विवेचन के अनुसार सभी अंग सूत्रकृत हैं, पर नाम से दूसरे अंग को ही सूत्रकृत कहते हैं ।) विषय - सूत्रकृतांग में कहीं (१) लोक सूचित किया जाता है, कहीं (२) अलोक सूचित किया जाता है, कहीं (३) लोक अलोक दोनों सूचित किये जाते हैं, कहीं (४) जीव सूचित किये जाते हैं, कहीं (५) अजीव सूचित किये जाते हैं, कहीं (६) जीव अजीव दोनों सूचित किये जाते हैं । कहीं (७) स्व-समय-जैन दर्शन सूचित किया जाता है। कहीं (८) पर समय- अजैन दर्शन सूचित किया जाता है। कहीं (९) स्वसमय-परसमय दोनों सूचित किये जाते हैं। सूयगडे णं असीयस्स किरियावाइसयस्स, चउरासीइए अकिरियावाईणं, सत्तट्ठीए अण्णाणिपवाईणं, बत्तीसाए वेणइयवाइणं, तिण्हं तेसद्वाणं पासंडियसयाणं बूहं किच्चा ससमए ठाविज्जइ । अर्थ १८० क्रियावादी, ८४ अक्रियावादी, ६७ अज्ञानवादी तथा ३२ विनयवादी, इन ३६३ पाखण्डियों का खण्डन कर जैनवाद की स्थापना की गई है। विवेचन पर - समय में अन्य मतों के - १ ६-१८० - क्रियावादियों के, ८४ अक्रियावादियों के, ६७ अज्ञानवादियों के और ३२ विनयवादियों के, यों सब ३६३ तीन सौ तिरसठ पाखंडी मतों का खण्डन कर, स्व- समय की जैन मत की स्थापना-सिद्धि की जाती है। १. क्रियावादी - जो 'क्रिया है' - ऐसा कहते हैं, वे 'क्रियावादी' हैं । अन्यत्र जैनियों को भी 'क्रियावादी' कहा है। यहाँ जो हिंसात्मक, मिथ्या एकांतवाद पूर्वक, उन्मत्त - प्रलाप की भाँति पूर्वापर विरुद्ध कुछ सत्य कुछ असत्य, कभी किसी रूप में और कभी किसी रूप में आत्मा की क्रिया का कथन करते हैं, ऐसे अजैनियों को 'क्रियावादी' कहा है। - Jain Education International २३७ इसके मुख्य पाँच भेद हैं - १. कालवादी २. ईश्वरवादी ३. आत्मवादी ४. नियतिवादी और ५. स्वभाववादी । इनमें जो कालवादी हैं, वे एकांत काल को, जो ईश्वरवादी हैं, वे ईश्वर को, जो आत्मवादी हैं, वे परब्रह्म को, जो नियतिवादी है, वे एकांत होनहार को और जो स्वभाववादी हैं, वे एकान्त स्वभाव को ही विश्व का सर्जक, संचालक और संहारक मानते हैं। *************** इन पाँचों के दो भेद हैं- १. स्वतःवादी और २. परतःवादी । स्वतः वादी प्रत्येक पदार्थ को एकांत स्वतः मानते हैं और परतः वादी एकांत परतः मानते हैं। यों १० भेद हुए । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy