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________________ २२२ नन्दी सूत्र ******************************** ********** २. अभवसिद्धिक - कभी भी मोक्ष में न जाने वाले ( मिथ्यादृष्टि ) जीव का मिथ्या श्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि वह अनादि मिथ्यादृष्टि होने से उसके मिथ्याश्रुत का कभी आरंभ नहीं हुआ (सदा से साथ लगा है) और वह सदाकाल मिथ्यादृष्टि ही रहेगा, अतएव उसके मिथ्या श्रुत का कभी व्यवच्छेद नहीं होता । Jain Education International ३. श्रुत का सादि अपर्यवसित भंग शून्य है, क्योंकि वह मिथ्याश्रुत या सम्यक् श्रुत किसी में भी घटित नहीं होता। जो मिथ्याश्रुत सादि होता है, वह अपर्यवसित नहीं होता और जो मिथ्याश्रुत. अपर्यवसित होता है, वह सादि नहीं होता तथा सम्यक् श्रुत नियम से सादि सपर्यवसित ही होता है । ४. भवसिद्धिक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्याश्रुत, अनादि सपर्यवसित है । वह अमादि से मिथ्यादृष्टि होने से उसके मिथ्याश्रुत का कभी आरंभ नहीं हुआ और वह भवसिद्धिक होने से अवश्य सम्यक्त्व और केवलज्ञान पायेगा । अतएव उसके मिथ्याश्रुत का विच्छेद अवश्य होगा । - ***************** प्रश्न अभी श्रुत के जो सादि अपर्यवसित, अनादि अपर्यवसित ये चार भेद- द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से बनाये हैं और चार भंग बनाकर बताये हैं, वे श्रुत में ही है या मति में भी ? उत्तर - वे मति में भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि जहाँ श्रुत होता है, वहाँ नियम से मति रहता ही है। अभी जो तीसरे और चौथे भंग में श्रुत को अनादि कहा है उसके विषय में अब सूत्रकार, ज्ञान का परिणाम बताकर 'जीव में अनादि से श्रुत विद्यमान है ' - यह तर्क और दृष्टान्त द्वारा सिद्ध करते हैं । श्रुत की अनादिता सव्वागासपएसग्गं सव्वागासपएसेहिं अनंतगुणियं पज्जवक्खरं णिप्फज्जइ । अर्थ - सर्व आकाश के जितने प्रदेश हैं, उन्हें सर्व आकाश के प्रदेशों से अर्थात् उन्हें उतने ही प्रदेशों से अनन्तवार गुणित करने पर 'पर्यवाक्षर' होता है। विवेचन - ज्ञान का परिमाण लोकाकाश और अलोकाकाश, यों सर्व आकाश के जितने प्रदेश हैं, उन्हें सर्व आकाश के समस्त प्रदेशों के द्वारा अनन्तवार गुणित किया जाये (उपलक्षण से धर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों के प्रदेशों को भी उनके उतने ही प्रदेशों से अनन्तवार गुणित किया जाये) तब जितना गुणनफल होगा उतने अक्षर के अर्थात् (केवलज्ञान के पर्यव हैं, या ) श्रुतज्ञान के स्व-पर पर्यव हैं। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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