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नन्दी सूत्र
अर्थ - ३. कालतः - उत्सर्पिणी अवसर्पिणी की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है तथा अनुत्सर्पिणी अनवसर्पिणी की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है।
विवेचन - ३. काल से - उत्सर्पिणी अवसर्पिणी रूप भरत ऐरवत क्षेत्र के काल की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि इन कालों में सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद होता है। यथा-उत्सर्पिणी में जब दुःषम-सुषमा नामक तीसरा आरा होता है तब से तीर्थंकर जन्म लेते हैं
और आचारांग आदि श्रुतज्ञान का प्रवर्तन करते हैं, तब सम्यक्श्रुत का आरंभ होता है और जब सुषम-दुःषमा नामक चौथा आरा कुछ बीत जाता है और तीर्थंकरादि का अभाव हो जाता है, तब आचारांग आदि श्रुतज्ञान का व्यवच्छेद हो जाता है तथा अवसर्पिणी में जब सुषम-दुःषमा नामक तीसरा आरा कुछ शेष रहता है, तब से तीर्थंकर जन्म लेते हैं और आचारांग आदि श्रुतज्ञान का प्रवर्तन करते हैं, तब सम्यक्श्रुत का आरंभ होता है तथा दुषमा नामक पाँचवें आरे में जब साधु आदि का अभाव हो जाता है, तब आचारांग आदि श्रुतज्ञान का विच्छेद हो जाता है।
- 'नहीं-उत्सर्पिणी, नहीं-अवसर्पिणी' रूप महाविदेह क्षेत्र के काल की अपेक्षा सम्यक्श्रुत अनादि अपर्यवसित है, क्योंकि इसमें सम्यक्श्रुत का आरंभ और व्यवच्छेद नहीं होता। महाविदेह क्षेत्र में सदा चौथे दुःषम-सुषमा आरे के समान काल रहता है, अतएव वहाँ सदा श्रुतप्रदाता तीर्थंकरादि का सद्भाव रहता है और श्रुत सीखने वाले साधु आदि की विद्यमानता रहती है।
भावओ णं जे जया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति, पण्णविजंति, परूविज्जंति, दंसिज्जंति, णिदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति, तया ते भावे पडुच्च साइयं सपज्जवसियं, खाओवसमियं पुण भावं पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं।
अर्थ - ४. भाव से - अरिहंत कथित भावों का जब-जब निरूपण आरंभ (और निरूपण समापन) किया जाता है, तब-तब उन-उन आरब्ध तथा समापित भावों की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित हैं तथा क्षायोपशमिक भाव की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है।
विवेचन - ४. भाव से - उपयोग की अपेक्षा सम्यक्श्रुत सादि सपर्यवसित है, क्योंकि उपयोग का आरंभ और व्यवच्छेद होता है। जैसे-जब जिनेश्वर प्रज्ञप्त भावों का आख्यान आरंभ किया जाता है-सामान्य या विशेष रूप से कथन आरंभ किया जाता है, तब उन भावों के प्रति उपयोग का आरंभ होता है और जब उन भावों का आख्यान समाप्त किया जाता है, तब उन भावों के प्रति उपयोग का व्यवच्छेद हो जाता है।
आख्यान के भेद इस प्रकार हैं-१. प्रज्ञापना करना - तत्त्वों के भेद, नाम आदि बतलाना, जैसेतत्त्व नव हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष।
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