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________________ २१८ . नन्दी सूत्र ********************************************************** ******* ********************* भावार्थ - ३. अथवा मिथ्यादृष्टि के लिए भी ये सम्यक्श्रुत हैं। 'क्यों?' सम्यक्त्व में कारण बनते हैं-इसलिए क्योंकि कई मिथ्यादृष्टि उन्हीं ग्रन्थों को पढ़-सुनकर उनमें रही हुई एकान्तवादिता, पूर्वापर विरुद्धता, अयथार्थता आदि को अपनी विचारणा से जानकर उनसे प्रेरित हो (इन मिथ्याश्रुतों को 'ये मिथ्याश्रुत हैं'-यों सम्यग् श्रद्धा से ग्रहण करते हैं और) अपनी मिथ्यादृष्टि को छोड़ देते हैं। ४. ये सम्यग्दृष्टियों के लिए मिथ्याश्रुत हैं। 'क्यों?' मिथ्यात्व के कारण बनते हैं-इसलिए। कई सम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्व मोहनीय के उदय के समय इन्हें पढ़-सुनकर, जैनधर्म के विशिष्ट ज्ञान आदि के अभाव में, इन मिथ्याश्रुतों को-'ये सम्यग्श्रुत हैं'-यों मिथ्याश्रद्धा से ग्रहण कर लेते हैं और सम्यग्दृष्टि छोड़ देते हैं। यह मिथ्याश्रुत है। अब सूत्रकार श्रुतज्ञान के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें भेद के स्वरूप का वर्णन करते हैं। ७-१०. सादि श्रुत, अनादि श्रुत, सादि सपर्यवसित श्रुत और अनादि अपर्यवसित श्रुत से किं तं साइयं सपज्जवसियं, अणाइयं अपज्जवसियं च? इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं वुच्चित्तिणयट्ठयाए साइयं सपज्जवसियं अवुच्छित्तिणयट्ठयाए अणाइयं अपज्जवसियं। प्रश्न - वह सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसित श्रुत क्या है? उत्तर - यह आचार्य-कोष द्वादशांगी, व्यवच्छित्ति नय की अपेक्षा सादि सपर्यवसित है तथा अव्यवच्छित्ति नय की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है। विवेचन - जो श्रुत आदि सहित है, वह सादिश्रुत है। जो श्रुत अन्त सहित है, वह सपर्यवसित श्रुत है। जो श्रुत आदि रहित है, वह अनादिश्रुत है। जो श्रुत अन्त रहित है, वह अपर्यवसित श्रुत है। भेद - अभी जो बारह अंगों वाला गणिपिटक बताया, वह (उपलक्षण से आवश्यक आदि अगंबाह्य सम्यक्श्रुत भी) सादि सपर्यवसित श्रुत और अनादि अपर्यवसित श्रुत है। ___ अपेक्षा - ये द्वादशांग गणिपिटक आदि सम्यक्श्रुत (आरंभ और) व्यवच्छेद नय की अपेक्षा सादि सपर्यवसित है और (अनारंभ और) अव्यवच्छेद नय की अपेक्षा अनादि अपर्यवसित है। तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। अर्थ - वह सम्यक्श्रुत संक्षेप से चार प्रकार का है। यथा-१. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से और ४. भाव से। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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