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________________ मति ज्ञान - वज्रस्वामी १७३ १५. वज्रस्वामी अवन्ती देश में 'तुम्ब वन' नाम का एक नगर था। वहाँ एक इभ्य (धनवान्) सेठ रहता था। उसके पुत्र का नाम धनगिरि था। उसका विवाह धनपाल सेठ की पुत्री सुनन्दा के साथ हुआ। विवाह के कुछ ही दिनों के पश्चात् धनगिरि दीक्षा लेने के लिए तैयार हुआ, किन्तु उस समय उसकी स्त्री ने उसे रोक दिया। कुछ समय पश्चात् देवलोक से चव कर एक पुण्यवान् जीव सुनन्दा की कुक्षि में आया। धनगिरि ने सुनन्दा से कहा - "यह भावी पुत्र तुम्हारे लिए आधार होगा। अब मुझे दीक्षा की आज्ञा दे दो।" धनगिरि को उत्कृष्ट वैराग्य हुआ जान कर सुनन्दा ने उसे आज्ञा दे दी। दीक्षा के लिए आज्ञा हो जाने पर धनगिरि ने सिंहगिरि नामक आचार्य के पास दीक्षा ले ली। सनन्दा के भाई आर्य समित ने भी इन्हीं आचार्य के पास दीक्षा ली थी। .. गर्भ समय पूरा होने पर सुनन्दा की कुक्षि से एक महान् पुण्यशाली पुत्र का जन्म हुआ। जब उसका जन्मोत्सव मनाया जा रहा था, तब किसी स्त्री ने कहा - "यदि इस बालक के पिता ने दीक्षा न ली होती, तो अच्छा होता।" बालक बहुत बुद्धिमान् था। स्त्री के उपरोक्त वचनों को सुन कर वह विचारने लगा कि "मेरे पिता ने दीक्षा ली है, अब मुझे क्या करना चाहिए?" इस विषय पर गहरा चिंतन करते हुए उस बालक को जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने विचार किया कि मुझे ऐसा कोई उपाय करना चाहिए जिससे मैं इन सांसारिक बन्धनों से छुट जाऊँ तथा माता को भी वैराग्य उत्पन्न हो और वह भी इन सांसारिक बन्धनों से छूट जाये। ऐसा सोच कर उसने रात-दिन रोना शुरू किया। अनेक प्रकार के खिलौने देकर माता उसे शांत करने का प्रयत्न करती थी, किन्तु बालक ने रोना बन्द नहीं किया। इससे उसकी माता खिन्न होने लगी। आचार्य सिंहगिरि ग्रामानुग्राम विहार करते हुए वापिस तुम्बवन में पधारे। गुरु महाराज की आज्ञा लेकर धनगिरि और आर्य समित, भिक्षा के लिए शहर में जाने लगे। उस समय होते हुए शुभ शकुन को देख कर गुरु महाराज ने उनसे कहा - "आज तुम्हें कोई महान् लाभ होने वाला है, इसलिए सचित्त या अचित्त जो भी भिक्षा मिले उसे ले आना।" गुरु महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके वे मुनि शहर में गये। उस समय सुनन्दा अपनी सखियों के साथ बैठी थी और रोते हुए बालक को शांत करने का प्रयत्न कर रही थी। उसी समय वे मुनि उधर से निकले। उन्हें देख कर सुनन्दा ने धनगिरि मुनि से कहा - "इतने दिन इस बालक की रक्षा मैंने की, अब इसे आप ले जाइये और इसकी रक्षा कीजिये।" यह सुनकर धनगिरि मुनि उसके सामने अपना पात्र खोल कर खड़े रहे। सुनन्दा ने उस बालक को उनके पात्र में रख दिया। श्रावक और श्राविकाओं की साक्षी से मुनि ने उस बालक को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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