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________________ मति ज्ञान - स्थलभद्र का त्याग १६९ अर्थात् - यह मुद्रा (परिग्रह-माया) स्वतंत्रता का अपहरण कर परतंत्र बनाने वाली, प्राणियों के सुख को नष्ट करने वाली, कठोर कर्मों का बन्ध कराने वाली और धर्म कार्यों में अन्तराय करने वाली है। फिर वह मनुष्यों को सुख देने वाली कैसे हो सकती है? धन के लोभी राजा, प्रजा को अनेक प्रकार का कष्ट देकर उसका धन हरण कर लेते हैं। विशेष क्या कहा जाये, यह माया इस लोक और परलोक दोनों मे दुःख देने वाली है। इस प्रकार गहरा चिंतन करते हुए स्थूलभद्र को वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह राजसभा से निकल कर "आर्य सम्भूति विजय" के पास आया और दीक्षा अंगीकार कर ली। स्थूलभद्र के दीक्षा लेने पर राजा ने श्रीयक को मंत्री पद पर स्थापित किया। श्रीयक बहुत कुशलता के साथ राज्य का कार्य चलाने लगा। स्थूलभद्र मुनि दीक्षा लेकर ज्ञान ध्यान में तल्लीन रहने लगे। ग्रामानुग्राम विहार करते हुए स्थूलभद्र मुनि, अपने गुरु के साथ पाटलिपुत्र पधारे। चातुर्मास का समय नजदीक आ जाने से गुरु ने वहीं चातुर्मास कर दिया। तब गुरु के समक्ष चार मुनियों ने भिन्न-भिन्न स्थलों में चातुर्मास करने की आज्ञा माँगी। एक मुनि ने सिंह की गुफा में, दूसरे ने सर्प के बिल पर, तीसरे ने कुएँ के किनारे पर और चौथे मुनि स्थूलभद्र ने कोशा वेश्या के घर चातुर्मास करने की आज्ञा माँगी। गुरु ने ज्ञान में लाभालाभ देख कर चारों मुनियों को आज्ञा दे दी। सब अपने-अपने इष्ट स्थान पर चले गये। जब स्थूलभद्र मुनि कोशा वेश्या के घर गये, तो वह बहुत हर्षित हुई। वह सोचने लगी-"बहुत समय का बिछुड़ा हुआ मेरा प्रेमी, आज वापिस मेरे घर आ गया।" ठहरने के लिए मुनि ने कोशा से अनुज्ञा माँगी। उसने मुनि को अपनी चित्रशाला में ही ठहरने की अनुज्ञा दी। फिर वह श्रृंगार आदि करके बहुत हाव-भाव पूर्वक मुनि को चलित करने का प्रयत्न करने लगी, किन्तु मुनि स्थूलभद्र अब पहले वाले रागी स्थूलभद्रं नहीं थे। भोगों को किंपाक फल के समान महादुःखदायी समझकर वे उन्हें ठुकरा चुके थे। उनके रग-रग में वैराग्य घर कर चुका था। इसलिए काया से चलित होना दूर, वे मन से भी चलित नहीं हुए। मुनि की निर्विकार मुखमुद्रा देख कर वेश्या परिश्रांत हो गई। तब मुनि ने हृदयस्पर्शी शब्दों में उसे उपदेश दिया, जिससे उसे प्रतिबोध हो गया। भोगों को दुःख की खान समझ कर उसने राजाज्ञा के अतिरिक्त भोगों का त्याग कर दिया और वह श्राविका बन गई। चातुर्मास समाप्त होने पर सिंहगुफा, सर्पद्वार और कुएँ पर चातुर्मास करने वाले मुनियों ने आकर गुरु महाराज को वन्दना-नमस्कार किया। तब गुरु महाराज ने कहा - "कृत दुष्करा" अर्थात् हे मुनियों! तुमने दुष्कर कार्य किया है। यों एक बार 'दुष्कर' कहा जब स्थूलभद्र आये, तो गुरु महाराज तत्काल खड़े हो गये और कहा - 'कृत दुष्कर दुष्करः" अर्थात् हे मुनीश्वर! तुमने महान् दुष्कर कार्य किया है। यों तीन बार 'दुष्कर किया है' कहा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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