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मति ज्ञान - वैनेयिकी बुद्धि
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__परिव्राजक की घोषणा को सुन कर कई लोग उसे नई बात सुनाने के लिए आये, किंतु कोई भी पुरस्कार को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सका। जो भी नई बात सुनाई जाती; वह परिव्राजक को याद हो जाती और वह उसे ज्यों की त्यों वापिस सुना देता और कह देता कि "यह बात तो मेरी सुनी हुई है।"
परिव्राजक की उपरोक्त प्रतिज्ञा एक सिद्धपुत्र ने सुनी। उसने लोगों से कहा-"यदि परिव्राजक अपनी प्रतिज्ञा पर कायम रहे, तो मैं अवश्य उसे नई बात सुनाऊँगा।" आखिर वे दोनों राजा के पास पहुंचे। जनता भी बहुत इकट्ठी हुई। सभी लोगों की दृष्टि सिद्धपुत्र की ओर लगी हुई थी। राजा की आज्ञा पाकर सिद्धपुत्र ने परिव्राजक को लक्ष्य करके निम्नलिखित श्लोक कहा
."तुज्झ पिया महपिउणा, धारेइ अणुणगं सयसहस्सं। . जइ सुयपुव्वं दिज्जउ, अह ण सुयं खोरयं देसु॥" । अर्थात् - "मेरे पिता, तुम्हारे पिता में पूरे एक लाख रुपये मांगते हैं।" यदि यह बात तुमने पहले सुनी है, तो अपने पिता का कर्ज चुका दो और यदि नहीं सुनी है, तो खोरक (सोने का बर्तन) मुझे दे दो। . .. सिद्धपुत्र की बात सुन कर परिव्राजक बड़े असमञ्जस में पड़ गया। निरुपाय होकर उसने हार मान ली और अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार स्वर्ण-पात्र सिद्धपुत्र को दे दिया। सिद्धपुत्र की यह औत्पत्तिकी बुद्धि थी। (टीका)
.. वैनेयिकी बुद्धि अब सूत्रकार वैनेयिकी बुद्धि के लक्षण प्रस्तुत करते हैंभरणित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाल। उभओलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धी॥७३॥
अर्थ - जो बुद्धि धर्म, अर्थ, काम-तीनों पुरुषार्थ अथवा तीनों लोक का तलस्पर्शी ज्ञान रखने वाली है. और विकट से विकट प्रसंग को भी पार कर सकती है तथा उभय-लोक सफल बना देती है, उसे 'वैनेयिकी बुद्धि' कहते हैं।
०हिन्दी भाषा में इस प्रकार है. मेरा पिता, पिता तेरे में, रुपया माँगे पूरा लाख।
जो सुना हो तो दे दे, नहीं तो खोरक आगे राख॥
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