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________________ केवलज्ञान का स्वामी ८७ *************************************** ****************** * * केवलज्ञान का स्वामी सूत्रकार शिष्य की जिज्ञासा पूर्ति के लिए केवलज्ञान के विषय में दो बातें बताते हैं - १. केवलज्ञान किसे होता है और केवलज्ञान कितने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव देखता है। केवलज्ञान के भेद होते ही नहीं, अतएव उसके कितने भेद होते हैं? यह नहीं कहेंगे। सर्व प्रथम केवलज्ञान किसे होता है यह बताने वाला पहला स्वामी द्वार है। इसके स्वामी हैं - १. भवस्थ केवलज्ञानी और २. सिद्ध। १. भवस्थ केवलज्ञान - मनुष्य भव में रहे हुए चार घातिकर्म रहित जीवों को केवलज्ञान। २. सिद्ध केवलज्ञान - जो अष्ट कर्म क्षय कर मोक्ष सिद्धि पा चुके, उनका केवलज्ञान। भावार्थ - जीव के दो भेद हैं - १. सिद्ध और २. संसारी। उनमें सिद्धों को भी केवलज्ञान होता है और संसारियों में भी, जो मनुष्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घाति कर्म क्षय कर चुके, उन्हें भी केवलज्ञान होता है। से किं तं भवत्थकेवलणाणं? भवत्थकेवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - सजोगिभवत्थकेवलणाणं च अजोगिभवत्थकेवलणाणं च। ... अर्थ - प्रश्न - वह भवस्थ केवलज्ञान क्या है ? उत्तर - भवस्थ केवलज्ञान के दो भेद हैं। वे इस प्रकार हैं - . १. सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और २. अयोगी भवस्थ केवलज्ञान। विवेचन - १.सयोगी भवस्थ केवलज्ञान - जो मन, वचन, काय. इन तीन योगों की प्रवत्ति सहित हैं, ऐसे मनुष्य-भव में रहे हुए चार घाति-कर्म रहित संसारी केवलियों का केवलज्ञान। २. अयोगी भवस्थ केवलज्ञान - जिन्होंने मन, वचन, काय, इन तीनों का निरोध कर शैलेशी अवस्था प्राप्त कर ली है, ऐसे मनुष्य-भव में रहे हुए घाति-कर्म रहित संसारी (आसन्न मुक्ति वाले) केवलियों का केवलज्ञान। चार घाति-कर्म क्षय करने के पश्चात् मनुष्यों में दो अवस्था रहती है-१. पहले सयोगी अवस्था रहती है २. पीछे अयोगी अवस्था प्राप्त होती है। इन दोनों ही अवस्थाओं में मनुष्यों को केवलज्ञान रहता है। .. से किं तं सजोगिभवत्थकेवलणाणं? सजोगिभवत्थ-केवलणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - पढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणं च अपढमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणं च, अहवा चरमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणं च अचरमसमयसजोगि-भवत्थकेवलणाणं च। से त्तं सजोगिभवत्थकेवलणाणं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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