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________________ ********************* जो मनः पर्युव ज्ञानी, मध्यम ऋजुमति मनःपर्याय ज्ञान वाले हैं, उनमें जघन्य मनःपर्याय ज्ञान द्वारा जितनी पर्यायें जानी जाती है, उनसे १. कोई अनन्तवें भाग अधिक २. कोई असंख्येय भाग अधिक, ३. कोई संख्येय भाग अधिक ४. कोई संख्येय गुण अधिक, ५. कोई असंख्येय गुण अधिक और ६. कोई अनन्त गुण अधिक पर्यायें और उत्कृष्ट मनः पर्यवज्ञान से कोई छह स्थान हीन पर्यायें जानते हैं (प्रज्ञापना ५) । इति तीसरा विषय द्वार समाप्त । अब सूत्रकार, मन: पर्यायज्ञान का चौथा 'चूलिका द्वार' कहते हैं। उसमें मनः पर्यव ज्ञान के विषय में अब तक जो कहा, उसका कुछ संग्रह करते हुए अवधिज्ञान से उसका अन्तर बतलाते हैं । मनः पर्यवज्ञान का उपसंहार Jain Education International मनः पर्यवज्ञान का उपसंहार मणपज्जवगाणं पुण, जणमणपरिचिंतियत्थपागडणं । माणुसखित्तणिबद्धं, गुणपच्चइयं चरित्तवओ ॥ ६५ ॥ अर्थ - ' मनः पर्याय ज्ञान १. (रूपी द्रव्यमन को साक्षात् जानता है और उस पर अन्यथा अनुपपत्ति अनुमान से) जनमन परिचिन्तित पदार्थ को ही प्रकट करता है । २. मनुष्य क्षेत्र तक ही जानता है। ३. गुणप्रत्यय ही होता है और ४. चारित्रवान् साधुओं को ही उत्पन्न होता है । विवेचन- १. द्रव्य से अन्तर अवधिज्ञान जघन्य तेजोवर्गणा के उत्तरवर्ती तैजस के अयोग्य गुरुलघु द्रव्यों को जानता है, अथवा भाषा के पूर्ववर्ती, भाषा के अयोग्य अगुरुलघु द्रव्य को जानता है तथा उत्कृष्ट से परमाणु संख्य प्रदेशी, असंख्य प्रदेशी, अनन्त प्रदेशी, गुरुलघु, अगुरुलघु, औदारिक वर्गणा यावत् कर्म वर्गणा सभी प्रकार के समस्त रूपी पुद्गल द्रव्यों को जानता है। किन्तु मनः पर्याय ज्ञान, जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी मनोवर्गणा के अगुरुलघु सूक्ष्म रूपी द्रव्य को ही जानता है । - - २. क्षेत्र से अन्तर अवधिज्ञान जघन्य अंगुल असंख्येय भाग को और उत्कृष्ट लोक एवं अलोक में लोक प्रमाण असंख्य खण्ड क्षेत्र को जानता है, किन्तु मनः पर्यायज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्येय भाग को और उत्कृष्ट मनुष्य क्षेत्र को ही जानता है । ३. प्रत्यय से अन्तर है, पर सभी मनःपर्याय ज्ञान अवधिज्ञान कोई भवप्रत्यय भी होता है तथा कोई गुणप्रत्यय भी होता नियम से गुणप्रत्यय ही होते हैं । ४. स्वामी से अन्तर अवधिज्ञान, चारों गति के जीवों को भी हो सकता है, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक और सर्वविरत साधु को भी हो सकता है। यदि अज्ञान-विभंग ज्ञान - ******* - ८५ ******* **** For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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