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________________ दावहवे णामं एक्कारसमं अज्झयणं दावद्रव नामक ग्यारहवां अध्ययन . . . (१) जइ णं भंते! समणेणं० दसमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते एक्कारसमस्स० के अट्टे पण्णत्ते? भावार्थ - आर्य जंबू स्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा-भगवन्! यदि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी द्वारा दसवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्ररूपित किया गया है तो कृपया फरमाएं उन्होंने ग्यारहवें अध्ययन का क्या अर्थ फरमाया है? आराधक-विराधक विषयक जिज्ञासा एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. जाव गोयमे (समणं ३) एवं वयासी-कहं णं भंते! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति? .. भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी बोले-जंबू! उस काल, उस समय राजगृह नामक नगर था यावत् भगवान् वहाँ पधारे, गुणशील चैत्य में रुके। - एक बार गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से प्रश्न किया-भगवन्! जीव किस प्रकार आराधक होते हैं और वे किस प्रकार विराधक होते हैं? देश विराधक : स्वरूप .. गोयमा! से जहाणामए एगंसि समुद्दकूलंसि दावद्दवा णामं रुक्खा पण्णत्ता किण्हा जाव णिउरुंबभूया पत्तिया पुप्फिया फलिया हरियगरेरिजमाणा सिरीए अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति। । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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