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- ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපු सेलए भे जक्खे परं रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थिं णित्थारेजा। अण्णहा भे य. याणामि इमेसिं सरीरगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ।
शब्दार्थ - जण्णुपायवडिया - घुटने टेक कर।
भावार्थ - देवानुप्रियो! तुम पूर्व दिशावर्ती वन खण्ड में शैलक यक्ष की अत्यधिक भाव पूर्वक पुष्पों से अर्चना करो। घुटने टेक कर हाथ जोड़ कर वहाँ पर्युपासना में निरत रहो। जब शैलक यक्ष समय आने पर - यथा समय ऐसा कहे - 'किसको तारूँ, किसकी रक्षा करूँ', तब , तुम कहना-'हमें तारो, हमारी रक्षा करो।' शैलक यक्ष ही रत्नद्वीप देवी के हाथ से तुम्हें सहीसलामत बचा सकेगा। नहीं तो कौन जाने, तुम्हारे शरीर का क्या हाल हो?
विवेचन - सूलीगत पुरुष को सूली पर चढ़ाये जाने के बाद ही शैलक यक्ष के द्वारा रक्षा किये जाने के उपाय का पता लगा हो अथवा पहले उपाय का पता पड़ जाने पर भी मोह के कारण स्वयं के लिए उपाय की आवश्यकता नहीं समझ कर रक्षा का उपाय नहीं किया हो और बाद में देवी के रूष्ट हो जाने पर रक्षा के उपाय को नहीं कर सका हो अतः नहीं किया, ऐसा मालूम पड़ता है। . (३८)
. तए णं ते मागंदियदारगा तस्स सूलाइयस्स अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म सिग्धं चंडं चवलं तुरियं वेइयं जेणेव पुरथिमिल्ले वणसंडे जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति २ ता पोखरिणिं ओगाहें(गाह)ति २ ता जलमजणं करेंति २ त्ता जाइं तत्थ उप्पलाइं जाव गेण्हंति २ ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छंति २ त्ता आलोए पणामं करेंति २ त्ता महरिहं पुप्फच्चणियं करेंति २ त्ता जण्णुपायवडिया सुस्सूमाणा णमंसमाणा पज्जुवासंति।
भावार्थ - माकंदीपुत्र शूलारोपित पुरुष से यह सुनकर समझ कर शीघ्र ही बहुत तेज, चंचल, वेग युक्त गति से पूर्वी वनखंड में पहुँचे। वहाँ स्थित पुष्करिणी में उतरे, स्नान किया।' वहाँ जो कमल यावत् जो पुष्प मिले, उन्हें लिया। लेकर शैलक यक्ष के आयतन में आए। आयतन को देखते ही प्रणाम किया। फूलों से अति भाव पूर्वक अर्चना की, जमीन पर घुटने टिकाकर यक्ष की पर्युपासना करने लगे।
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