SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माकन्दी नामक नववां अध्ययन - देवी का माकंदी पुत्रों को आदेश १३ cocccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccx वहाँ जा रही हूँ। जब तक मैं नहीं आऊँ, तब तक तुम उत्तम प्रासाद में मन बहलाते हुए, सुख पूर्वक रहो। इस बीच यदि तुम उद्विग्न हो जाओ, मनोरंजन की उत्कंठा हो तो पूर्व दिशा में विद्यमान वन खण्ड में चले जाना। (२२) तत्थ णं दो उऊ सयासाहीणा, तंजहा-पाउसे य वासारत्ते य। तत्थ उकंदल-सिलिंध-दंतो णिउरवरपुप्फपीवरकरो। कुडयज्जुणणीव सुरभिदाणो, पाउसउऊगयवरो साहीणो॥१॥ तत्थ य - सुरगोवमणि विचित्तो, ददुरकुलरसिय - उज्झररवो। बरहिणविंद परिणद्ध सिहरो, वासारत्तोउउ पव्वओ साहीणो॥२॥ तत्थ णं तुन्भे देवाणुप्पिया! बहुसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु बहुसु आलीघरएसु य मालीघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा विहरेजाह। शब्दार्थ - साहीणा - स्वाधीन-विद्यमान, कंदल - अभिनव लता, सिलिंघ - वर्षा ऋतु में धरती को फोड़कर निकलने वाला विशेष पौधा, णिउर - निकुर संज्ञक वृक्ष के उत्तम पुष्प, पीवरकरो .- परिपुष्ट सूंड, सुरगोव - इन्द्रगोप-वीर बहूटी-वर्षा ऋतु में होने वाला लाल कीट, ददुर - मेंढक, रसिय - शब्द, बरहिणविंद - मयूर समूह, आलीघरएसु - वृक्ष विशेष के मण्डपों में, मालीघरएसु - लता मण्डपों में। . - भावार्थ - वहाँ दोनों ऋतुएँ सदा विद्यमान रहती हैं। जैसे प्रावृट-आषाढ-श्रावण और वर्षा . ऋतु-भाद्रपद-आश्विन। उसमें प्रावृट रूपी हाथी सुंदर रूप में विद्यमान है। नवीन लताएँ तथा सिलिन्ध्र उस हाथी रूपी प्रावृट के दांत हैं। निकुर वृक्ष के सुंदर पुष्प ही मानो उसकी परिपुष्ट सुंदर सूंड है। कुटज, अर्जुन एवं नीप वृक्ष के पुष्पों की सुगंधि ही उसका मदजल है। वह वर्षा ऋतु रूपी पर्वत वीर बहूटियों रूपी मणियों से विचित्र प्रतीत होता है। यह वर्षा रूपी पर्वत मेढकों के समूह की आवाज रूपी निर्झर ध्वनि से युक्त है। मयूर समूह से इसके शिखर परिव्याप्त है। यह अपने स्वरूप में भली भाँति व्यक्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy