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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध
रूयगगाहावई रूयगसिरी भारिया रूया दारिया सेसं तहेव । णवरं भूयाणंद अग्गमहिसित्ताए उववाओ देसूणं पलिओवमं ठिई ।
णिक्खेवओ।
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भावार्थ उस काल, उस समय रूपानंदा नामक राजधानी में, रूपावतंसक भवन में, रूपक नामक सिंहासन पर रूपादेवी आसीन थी। उसका शेष वर्णन काली देवी की तरह है।
इसके पूर्व भव का विशेष वृत्तांत यह है - चंपा नामक नगरी थी । पूर्णभद्र नामक चैत्य था। वहाँ रूपक नामक गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम रूपकश्री था। इनके रूपा नामक कन्या थी। बाकी वर्णन पूर्ववत् है ।
अंतर यह है, वह भूतानंद नामक इन्द्र की प्रधान देवी के रूप में उत्पन्न हुई। उसकी स्थिति एक पल्योपम से कुछ कम बतलाई गई है।
चतुर्थ वर्ग के प्रथम अध्ययन का निक्षेप यहाँ योजनीय है ।
|| प्रथम अध्ययन समाप्त ॥
अध्ययन २ से ६ तक
एवं खलु सुरुया विरुयंसा वि रुयगावई वि रुयकंता वि रुयप्पभा वि । भावार्थ सुरूपा, रूपांशा, रूपकवती, रूपकांता और रूपप्रभा के संबंध में भी इसी प्रकार ज्ञातव्य है-इन पांच देवियों के पांच अध्ययन भी इसी प्रकार हैं।
अध्ययन ७ से ५४ तक
एयाओ चेव उत्तरिल्लाणं इंदाणं भाणियव्वाओ जाव महाघोसस्स । णिक्खेवओ चउत्थवग्गस्स ।
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भावार्थ - इसी प्रकार उत्तरदिशावर्ती इन्द्र-वेणुदाली, हरिस्सह, अग्निमाणवक, विशिष्ट, जलप्रभ, अमितवाहन, प्रभंजन तथा महाघोष की यावत् छह-छह पटरानियों के छह-छह अध्ययन यहाँ कथनीय हैं। यों कुल (६+४८) चौपन अध्ययन हो जाते हैं।
इस प्रकार चतुर्थ वर्ग का निक्षेप यहाँ पूर्ववत् योजनीय है।
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॥२-५४ अध्ययन समाप्त ॥ ॥ चतुर्थ वर्ग समाप्त ॥
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