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____ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र - द्वितीय श्रुतस्कन्ध । SECREGREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEcceKacccccKICKERICCEEKEEEEEEEEEE
भावार्थ - तदनंतर काल गाथापति ने विपुल मात्रा में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य तैयार करवाए। मित्र, जातीय जन, पारिवारिक वृंद, कौटुंबिक वर्ग, संबंधी आदि को आमंत्रित किया। तत्पश्चात् उसने स्नानादि किया यावत् उन्हें भोजन करवाया, विपुल पुष्प, वस्त्र, सुगंधित पदार्थ, माला आदि से उनका सत्कार सम्मान किया। उन सबकी उपस्थिति में अपनी पुत्री काली को चांदी-सोने के कलशों में भरे जल से स्नान करवाया सर्वविध आभूषणों से अलंकृत किया। एक सहस्त्र पुरुषों द्वारा वहनीय शिविका पर आरूढ़ करवाया। अपने मित्रादि समस्तजनों से घिरा हुआ, समस्त प्रकार के ऋद्धि, ऐश्वर्य से युक्त यावत् उछालें मारते समुद्र की तरह गंभीर मंगलमय निनाद के साथ आमलकल्पा नगरी के बीचोंबीच होता हुआ, आम्रशालवन नामक चैत्य में आया। वहाँ तीर्थंकर प्रभु के छत्र, चामरादि अतिशय को देखा, शिविका को रोककर, उससे पुत्री काली को नीचे उतारा। पुत्री काली को आगे कर उसके माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ की सेवा में उपस्थित हुए, वंदन, नमन कर यों बोले -
सूत्र-२२ एवं खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता जाव किमगं पुण पासणयाए? एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता (णं) जाव पव्वइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं (करेह)।
भावार्थ - देवानुप्रिय! पुत्री काली हमको बहुत ही प्रिय, कांत, इष्ट यावत् मनोज्ञ है। अधिक क्या कहें? इसको देखते-देखते हमारा मन नहीं भरता। देवानुप्रिय! संसार-आवागमन के भय से उद्विग्न होकर यह आपके पास मुण्डित होकर यावत् दीक्षित होना चाहती है। ___ देवानुप्रिय! हम शिष्या के रूप में यह भिक्षा देना चाहते हैं। आप इसे शिष्या के रूप में स्वीकार करें।
भगवान् ने कहा - देवानुप्रिय! जिससे तुम्हें सुख हो, वैसा करो। उत्तम धर्मकार्य को विलंबित, बाधित मत करो।
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