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________________ पुण्डरीक नामक उन्नीसवां अध्ययन जीवन यात्रा का साफल्य ***********------------------------*** एक समय में दो बांधव चविया, अन्तर मेरु समान । एक गया नरक सातवीं, एक सर्वार्थसिद्ध विमान ।। दोनों तरफ भावना की धारा अत्यन्त निम्न स्तरीय एवं अत्यन्त उच्च स्तरीय होने से ही अल्प समय में यह परिवर्तन हो सका। अतः इसे सस्ता नहीं समझना चाहिए। भावों की धारा से कठिन कर्मों की शीघ्र अन्तर्मुहूर्त में निर्जरा की जा सकती है एवं तंदुलमत्स्य की तरह अशुभभावों से अन्तर्मुहूर्त में अशुभतम कर्मों का बन्ध भी किया जा सकता है । अतः इसमें विचारणीय जैसा कुछ भी ध्यान में नहीं आता। (३०) एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं जाव सिद्धिगइणामधेज्जं ठाणं संपत्तेणं एगूणवीसइमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते । भावार्थ श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा हे जंबू ! आदिकर, तीर्थंकर, सिद्धि प्राप्त - सिद्ध भगवान् महावीर स्वामी ने उन्नीसवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है। (३१) एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगड़-णामधेज्ज ठाणं संपत्तेणं छट्ठस्स अंगस्स पढमस्स सुयक्खंधस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्ति बेमि। भावार्थ - हे जंबू ! सिद्धि प्राप्त भगवान् महावीर स्वामी ने छठे अंग सूत्र ज्ञाताध्ययन के पहले श्रुतस्कन्ध का यह आशय, भाव प्रज्ञापित किया है। जैसा मैंने उनसे सुना, वैसा तुम्हें बतलाया है। ३११ - Jain Education International - (३२) तस्स णं सुयक्खंधस्स एगूणवीसं अज्झयणाणि एक्कसरगाणि एगूणवीसाए दिवसेसु समप्पंति । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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