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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र । පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපු
भावार्थ - इसी प्रकार आयुष्मन् श्रमणो! यावत् जो साधु-साध्वी प्रव्रजित होकर मनुष्य जीवन विषयक कामभोगों की अभिलाषा करते हैं यावत् कंडरीक राजा की तरह संसार में बारबार अनुपर्यटन करते हैं, भटकते रहते हैं। पुंडरीक आत्म-साधना में अग्रसर
(२६) - तए णं से पुंडरीए अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ २ त्ता थेरे भगवंते वंदइ णमंसइ, वं० २ ता थेराणं अंतिए दोच्चंपि चाउजामं धम्म पडिवज्जइ छट्ठखमण पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ २ ता जाव अडमाणे सीयलुक्खं पाणभोयणं पडिगाहेइ २ त्ता अहापजत्तमितिकटु पडिणियत्तइ जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छइ २ ता भत्तपाणं पडिदंसेइ २ त्ता थेरेहि भगवंतेहिं अब्भणुण्णाए समाणे अमुच्छिए ४ बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं तं फासुएसणिजं असणं ४ सरीरकोट्टगंसि पक्खिवइ।
भावार्थ - अनगार पुंडरीक चलकर जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँच कर उसने स्थविर भगवंत को वंदन, नमन किया तथा दूसरी बार स्थविर भगवंत से चातुर्याम धर्म स्वीकार किया। तत्पश्चात् बेले के पारणे के दिन, पहले पहर में स्वाध्याय किया। दूसरे पहर में ध्यान किया। तदनंतर तीसरे पहर में भिक्षा हेतु पर्यटन करते हुए ठंडा, रूखा जैसा भी आहार-पानी मिला, लिया। मेरे लिए यह यथा पर्याप्त-यथेष्ट है, यों सोचकर वह जहाँ स्थविर भगवंत थे, वहाँ वापस लौटा। उन्हें आहार-पानी दिखलाया तथा उनकी आज्ञा प्राप्त कर मूर्छा, लोलुपता, आसक्ति से रहित होकर, उसी प्रकार उस प्रासुक-अचित्त एषणीय-कल्पनीय आहार को उसी तरह शरीर रूपी कोष्ठ में डाला, जिस तरह साँप अपने बिल में प्रवेश कर जाता है।
(२७) ... तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कंतं अरसं विरसं सीयलुक्खं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाल समयंसि धम्म जागरियं
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