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________________ आकीर्ण नामक सतरहवां अध्ययन - अकस्मात कालिकद्वीप पहुँचने का संयोग २६६ Xiaoceacocccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccx सद्देसु य भद्दयपावएसु सोयविसयं उवगएसु। तुट्टेण व रु?ण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१६॥ रूवेसु य भंद्दयपावएसु चक्खुविसयं उवगएसु। तुट्टेण व रुढेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१७॥ गंधेसु य भद्दयपावएसु घाणविसयमुवगएसु। तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१८॥ रसेसु य भद्दय पावएसु जिब्भविसयमुवगएसु। तुट्टेण व रु?ण व समणेण सया ण होयव्वं ॥१६॥ फासेसु य भद्दयपावएसु कायविसयमुवगएसु। तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया ण होयव्वं ॥२०॥ शब्दार्थ - कउह - ककुद-प्रधान, दीविग - पिंजरे में बंधी तीतरी, दुइंतत्तणस्स - दुर्दैतता-अविजेयता, उउय.- ऋतुज-विभिन्न ऋतुओं में होने वाले, अगरु - विशेष गंध युक्त द्रव्य, बिलाओ - बिल से, पिट्ठावई - निकल पड़ता है, लेज्झेसु - लेह्य-चाटने योग्य पदार्थों में, भयमाण - भज्यमाण-प्राप्त होने वाले, सविभव - संपत्तिशाली, णिव्वुइकरेसु - सुख प्रद। भावार्थ - जो श्रोत्रेन्द्रिय के वश में होते हैं, वे वीणा आदि तन्तु वाद्य तल-ताल, मृदंग आदि तालवाघ, बांसुरी आदि मुंह की हवा से बजाए जाने वाले वाद्यों के सुंदर, सुखद, मधुर अभिराम शब्दों में अनुरक्त रहते हुए, उनमें रमण करते हैं, उनका आनंद लेते हैं॥१॥ श्रोत्रेन्द्रिय की दुर्जेयता का बहुत बड़ा दोष होता है। व्याध (शिकारी पारधि) के पिंजरे में बंधी तीतरी के मोहक शब्द को सहन न करता हुआ, उससे पराङ्मुख न रहता हुआ, उस ओर बढ़ता हुआ तीतर बंधन और वध को प्राप्त होता है॥२॥ चक्षु - इन्द्रिय के वशवर्ती लोग स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर तथा नेत्रादि के सौंदर्य से गर्वित विलासिनी नारियों के रूप में राग रंजित होकर रमण करते हैं॥३॥ . चक्षु इन्द्रिय की दुर्जेयता अत्यंत दोष उत्पन्न करती है। जैसे बुद्धि हीन पतंगिया जलती हुई अग्नि में पड़कर अपने प्राण गंवा देता है। उसी प्रकार चक्षु-इन्द्रिय के वशवर्ती मनुष्य अत्यंत । कष्ट पाते हैं, अपना सर्वस्व गंवा बैठते हैं॥४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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