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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र (२१) जहिं जहिं च णं ते आसा आस० तहिं तहिं च णं ते बहवे कोयवया जाव सिलावट्टया अण्णाणि य फासिंदियपाउंगाई अत्थुयपच्चत्थुयाई ठवेंति २ ता तेसिं परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति । भावार्थ - जहाँ-जहाँ वे घोड़े बैठते, सोते, खड़े होते, जमीन पर लौटते वहाँ-वहाँ उन्होंने बहुत से रूई के वस्त्र यावत् चिकने शिलापट्टक तथा अन्य बहुत से स्पर्शनेन्द्रियों के लिए सुखप्रद आस्तरण, प्रत्यास्तस्ण स्थापित किए। उनके चारों ओर भी जाल बिछा दिए यावत् वे पूर्ववत् स्थित हो गए। २६४ (२२) तणं ते आसा जेणेव ते उक्किट्ठा सद्दफरिसरसरूवगंधा तेणेव उवागच्छंति० । तत्थ णं अत्थेगइया आसा अपुव्वा णं इमे सद्दफरिस - रसरूवगंधा तिकट्टु तेसु उक्किट्ठेसु सद्दफरिसरसरूवगंधेसु अमुच्छिया ४ तेसिं उक्कट्ठाणं सद्द जाव गंधाणं दूरंदूरेणं अवक्कमंति ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिब्भया णिरुव्विग्गा सुहंसुहेणं विहरंति। भावार्थ तदनंतर वे घोड़े जहाँ आए, जहाँ उत्तम शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध युक्त वस्तुएं रखी थीं। ये शब्द, स्पर्श, रूप, रस गंध मय पदार्थ हमने पहले कभी नहीं देखे, पहले कभी अनुभव नहीं किया, न जाने कैसे हैं, यह सोचकर कतिपय उन उत्तम शब्दादि पदार्थों में मूच्छित, लोलुप और आसक्त नहीं हुए। उन उत्तम शब्द यावत् गंध मय पदार्थों से बहुत दूर रहते हुए वहीं चले गए जहाँ बड़े-बड़े गोचर थे, घास और जल था । वहाँ वे भय रहित और अनुद्विग्न होते हुए सुखपूर्वक विचरने लगे । - (२३) एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा सद्दफरिसरसरूवगंधा णो सज्जड़ से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिजे जाव वीईवइस्सइ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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