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________________ २३८ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - एगट्ठियाए - बड़ी नौका, पहू - प्रभु-समर्थ, मेंति - छिपाते हैं। भावार्थ - श्री कृष्ण वासुदेव लवण समुद्र के बीच चलते-चलते गंगा नदी के निकट पहुँचे .. और बोले-देवानुप्रियो! जाओ गंगा नदी को पार करो, तब तक मैं लवणाधिपति सुस्थित देव से .. भेंट कर आऊँ। कृष्ण वासुदेव द्वारा यों कहे जाने पर पांचों पाण्डव गंगा महानदी के तट पर आए। एकार्थिक नौका की खोज की। उसमें बैठकर गंगा महानदी को पार किया। तट पर पहुँच कर परस्पर यों बात करने लगे-देवानुप्रियो! क्या कृष्ण वासुदेव गंगा नदी को अपनी भुजाओं से पार . करने में समर्थ है या नहीं, देखें। परस्पर चिंतन कर उन्होंने नौका को वहीं ऐसा छिपा दिया और कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते हुए ठहर गए। (२०५) तए णं से कण्हे वासुदेवे सुट्ठियं लवणाहिवई पासइ २ त्ता जेणेव गंगा महाणई तेणेव उवागच्छइ २ त्ता एगट्टियाए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ २ त्ता एगट्ठियं अपासमाणे एगाए बाहाए रहं सतुरगं ससाहिं गेण्हइ एगाए बाहाए गंगं महाणई बासहिँ जोयणाई अद्धजोयणं च वित्थिण्णं उत्तरिउं पयत्ते यावि होत्था। तए णं से कण्हे वासुदेवे गंगए महाणईए बहुमज्झदेसभागं संपत्ते समाणे संते तंते परितंते बद्धसेए जाए यावि होत्था। शब्दार्थ - बद्धसेए - पसीने से युक्त। भावार्थ - कृष्ण वासुदेव लवण समुद्र के अधिष्ठाता देव सुस्थित से मिले। मिलकर गंगा महानदी के तट पर आए। महानौका का सब ओर मार्गण-गवेषण किया। वह जब दृष्टिगोचर नहीं हुई तो उन्होंने एक भुजा से अश्व और सौरथी सहित रथ को उठाया तथा दूसरी भुजा से साढ़े बासठ योजन विस्तीर्ण गंगा महानदी को तैरकर पार करने को उद्यत हुए। जब वे गंगा नदी के बीचो-बीच पहुंचे तब परिश्रांत आकुल और खिन्न हो गए। शरीर से पसीना बहने लगा। (२०६) तए णं तस्स कण्हस्स वासुदेवस्स इमे एयारूवे अज्झत्थिए जाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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