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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र SOOCOGEECacacicccccccccccccccccccccccccccccccx सूरिजी ने विक्रम संवत् १६७२ में “ढाल सागर" नाम के एक काव्य ग्रन्थ की रचना की, उसके खण्ड ६ ढाल ११५ में द्रौपदी के पूज्यनीय आराध्य देव का खुलासा इस प्रकार किया है।
“करी पूजा “कामदेवनी" भाखे द्रौपदी नार। . देव दया करी मुझने, भलो देजो भरथार॥" .
उक्त दोहे में भी कामदेव की पूजा की पुष्टि की गई है। इस प्रकार प्रकरण के अनुसार द्रौपदी का स्वयंवर में जाने से पूर्व “कामदेव" की पूजा करना स्पष्ट है, न कि तीर्थंकर की प्रतिमा का। ___३. क्या द्रौपदी ने नमोत्थुणं से स्तुति की थी? - उक्त दोनों बिन्दुओं से स्पष्ट ध्वनित है कि द्रौपदी विवाह के पूर्व सम्यक्त्व रहित अर्थात् मिथ्यात्वी थी एवं उसने स्वयंवर मण्डप ने जाने से पूर्व "काम देव की प्रतिमा" की पूजा की थी। अतएव नमोत्थुणं के पाठ से प्रतिमा की स्तुति करने का प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु मूर्ति पूजक बंधुओं ने मूर्ति पूजा सिद्ध करने के लिए ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र की अनेक प्रतियों में “नमोत्थुणं" शब्द प्रक्षिप्त (बाद में बढ़ाया गया है) कर डाला है। पुरानी प्रतियों में "जिणपडिमाणं अच्चणं करेइ करित्ता" पाठ ही है। इसके लिए अनेक प्रमाण है -
१. पूज्य शतावधानी श्री रत्नविजयजी महाराज ने आगरा चातुर्मास में श्री रत्नधीर विजय के शिष्यानुशिष्य श्री रत्नविजयजी के भंडार में “पड़ी माभा" की एक प्राचीन आठ सौ वर्ष पुरानी ज्ञाता धर्मकथांग सूत्र की प्रति के पृष्ठ संख्या १३३ में पाठ इस प्रकार है - "जिण पडिमाणं अच्चणं करेई करित्ता जेणेव अंतउरे तेणेव उवागच्छई' अर्थात् जिन प्रतिमा का अर्चन किया, करके जिधर अंतःपुर था उधर चली. गई।
२. धर्मसिंहजी स्वामी भरुच के भंडार में ७०० वर्ष पुरानी एक ताड़ पत्र की प्रति में भी ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र का उपरोक्त पाठ ही है "नमोत्थुणं" नहीं है।
३. धूलिया के भंडार की १६ वीं शताब्दी में लिखित ज्ञातासूत्र के १६वें अध्ययन में उपरोक्त पाठ ही है। नमोत्थुणं पाठ नहीं है।
४. भावनगर से विक्रम संवत् १९८६ में प्रकाशित ज्ञाता सूत्र में भी द्रौपदी प्रकरण में नमोत्थुणं का पाठ नहीं है।
५. मूर्तिपूजक टीकाकार श्री अभयदेवसूरि द्रौपदी सम्बन्धी पूजा के पाठ की टीका करते • हुए लिखते हैं कि -
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