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अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन
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द्रमक द्वारा भी परित्याग
(६४)
तए णं (से) सागरदत्ते ( २ ) सूमालियं दारियं न्हाय जाव सव्वालंकार विभूसियं करिता तं दमगपुरिसं एवं वयासी एस णं देवाणुप्पिया! मम धूया इट्ठा ५ एयं णं अहं तवं भारियत्ताए दलयामि भद्दिया भओ - भविज्जासि ।
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भावार्थ - फिर सागरदत्त ने अपनी पुत्री सुकुमालिका को स्नानादि करवा कर सब प्रकार के आभूषणों से अलंकृत किया । वैसा कर उस दरिद्र पुरुष से कहा- देवानुप्रिय ! यह मेरी प्रिय पुत्री है । मैं तुम्हें पत्नी के रूप में देता हूँ। तुम इस भाग्यशालिनी के लिये कल्याणप्रद होना । द्रमक द्वारा भी परित्याग
(६५)
तणं से दमगपुरिसे सागरदत्तस्स एयमहं पडिसुणेइ २ त्ता सूमालियाए दारिया सद्धिं वासघरं अणुपविसइ सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगं सि णिवज्जइ । तए णं से दमगपुरिसे सूमालियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदे सेसं जहा सागरस्स जाव सयणिज्जाओ अब्भुट्ठेइ २ ता वासघराओ णिग्गच्छइ २ त्ता खंडमल्लगं खंडघडं च गहाय मारामुक्के विव काए जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं सा सूमालिया जाव गए णं से दमगपुरिसे-त्तिकट्टु ओहमण संकप्पा जाव झियाय ।
भावार्थ उस दीनहीन पुरुष ने सागरदत्त का यह कथन स्वीकार किया। दोनों परिणय बद्ध हुए। सुकुमालिका के साथ वह शयनगृह में प्रविष्ट हुआ । उसके साथ शय्या पर लेटा ।
उस दरिद्र पुरुष ने भी सुकुमालिका का अंग स्पर्श करने से वैसा ही अनुभव किया जैसा सागरदत्त ने किया। यहाँ सागरदत्त का तद्विषयक वृत्तांत योजनीय है। यावत् वह शय्या से उठा, शयनगृह से बाहर निकला, टूटे हुए शिकोरे एवं फूटे हुए घड़े के टुकड़े को उठा लिया एवं वध-स्थान से मुक्त हुए कौवे की तरह जिधर से आया उधर ही भाग गया।
वह दरिद्र पुरुष चला गया, यों सोचकर सुकुमालिका के मन में गहरा आघात लगा यात् वह दुःखित, उद्विग्न होती हुई आर्त्तध्यान में लग गई।
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