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________________ [18] हुआ ले गया उसका पीछा धन्य सार्थवाह और उसके पुत्रों ने लगातार किया, यह देखकर चिलात चोर अन्य कोई उपाय न देख कर सुसमा का गला काट डाला और धड़ को वही छोड़कर मस्तक लेकर अटवी में कहीं भाग गया। सार्थवाह एवं उसके पुत्रों ने जब अपनी पुत्री का मस्तक विहीन निर्जीव शरीर देखा तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। अब उन्होंने चोर का पीछा करना छोड़ कर पुनः राजगृह नगर जाने का सोचा। पर वे राजगृह से इतना दूर आ गए कि बिना भोजन पान के उनका वापिस राजगृह पहुँचना सम्भव नहीं था, अतएव राजगृह पहुँचने के लिए मृत “सुंसुमा" के मांस रुधिर का उपयोग कर वे राजगृह पहुंचे। इसी तरह साधक मुनि को चाहिये कि वह इस अशुचि युक्त शरीर के पोषण के लिए आहार-पानी का उपयोग न करे प्रत्युत मोक्ष धाम पहुँचने के लिए अनासक्त भाव से आहार करे। जिस प्रकार धन्य सार्थवाह और उसके पुत्रों ने अनासक्त भाव से राजगृह पहुँचने के लिए मृत कलेवर का आहार किया। उन्नीसवां अध्ययन - इस अध्ययन में मानव जीवन के उत्थान और पतन का सजीव चित्रण किया गया है। जो संयमी साधक हजारों वर्षों तक संयम का पालन करे और अन्त समय में इन्द्रियों और मन के वशीभूत होकर यदि संसार के भोगोपभोग के साधनों में आसक्त हो जाता है, तो उन साधनों का अल्प समय का उपभोग उसको नरक का मेहमान बना देता है। इसके विपरीत जो साधक उत्कृष्ट तप संयम की साधना करता है वह अल्प समय में ही सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख को प्राप्त कर लेता है। महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी थी। वहाँ राजा महापद्म के दो पुत्र थे पुण्डरीक और कण्डरीक। राजा महापद्म ने स्थविर भगवन्तों के पास दीक्षा अंगीकार की और शुद्ध संयम की आराधना कर यथासमय सिद्धि गति को प्राप्त किया। इसके पश्चात् किसी समय दूसरी बार स्थविर भगवन्त पधारे तो राजकुमार कण्डरीक ने उनके पास दीक्षा अंगीकार की। दीक्षा के दौरान कण्डरीक अनगार के शरीर में अन्त प्रान्त अर्थात् रूखे सूखे आहार के कारण शैलक मुनि के समान दाहज्वर उत्पन्न हो गया। पुंडरीक राजा ने स्थविर भगवन्तों से निवेदन कर कण्डरीक मुनि का अपनी यानशाला में उपचार कराया। चिकित्सा के प्रश्चात् कण्डरीक मुनि स्वस्थ हो गए पर मनोज्ञ अशन पान खादिम और स्वादिम आहार में मुर्छित, गृद्ध, आसक्त और तल्लीन होने से वे शिथिलाचारी बन गए। कुछ समय स्थविर भगवन्तों के साथ विहार कर वापिस पुंडरीकिणी नगर में लौटे। पुंडरीक राजा उनकी भावना को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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