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__ अपरकंका नामक सोलहवां अध्ययन - हिंसा-भय से स्वदेह में परिष्ठापन १४३ SECCEEDIOESBEEGREECEcccccesGERGREGIGEEEEEEEEEEEESer अज्झथिए० जइ ताव इमस्स सालइयस्स जाव एगंमि बिंदुगंमि पक्खित्तंमि अणेगाइं पिपीलिगासहस्साइं ववरोविज्जति तं जइ णं अहं एयं सालइयं थंडिल्लंसि सव्वं णिसिरामि (तए) तो णं बहूणं पाणाणं ४ वहकरणं भविस्सइ। तं सेयं खलु मम एयं सालइयं जाव णेहावगाढं सयमेव आहारेत्तए मम चेव एएणं सरीरेणं णिज्जाउ - त्तिकट्ठ एवं संपेहेइ २ ता मुहपोत्तियं २ पडिलेहेइ २ त्ता ससीसोवरियं कायं पमज्जेइ २ त्ता तं सालइयं त्तित्तकडुयं बहुणेहावगाढं बिलमिव पण्णगभूएणं अप्पाणेणं सव्वं सरीरकोटेंसि पक्खिवइ।
शब्दार्थ - पिपीलिगा - चींटियाँ, मुहपोत्तियं - मुखवस्त्रिका, पण्णगभूएणं - सर्प की तरह। . भावार्थ - तब उस तिक्त, कटु, घृत लिप्त तूंबे की गंध से हजारों चींटियाँ वहाँ आ गई। जिन-जिन चींटियों ने उसे खाया, वे असमय में ही काल-कवलित हो गई। यह देखकर धर्मरुचि अनगार के मन में ऐसा चिंतन यावत् मनोभाव उत्पन्न हुआ-यदि इस तूंबे के व्यंजन की एक बूंद मात्र डालने से हजारों चींटियाँ मर गईं, तो यदि मैं इस तूंबे के व्यंजन को सारा का सारा इस भूमि में डालूंगा को बहुत से प्राणों, भूतों, जीवों एवं सत्त्वों का वध होगा। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि घृतलिप्त, मसालों से पूरित तूंबे के शाक को मैं स्वयं ही खा लूँ। यह मेरे शरीर में ही परिष्ठापित हो जाए। यों विचार कर अपनी मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया। मस्तक सहित अपने शरीर का प्रमार्जन किया। वैसा कर उस तिक्त, कटुक, स्नेहल्पित व्यंजन को उसी तरह अपने शरीर रूपी प्रकोष्ठ में डाल दिया मानों साँप अपने बिल में सीधा प्रवेश कर गया हो।
(१६) तए णं तस्स धम्मरुइस्स तं सालइयं जाव णेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहत्तंतरेणं परिणममाणंसि सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरहियासा।
शब्दार्थ - दुरहियासा - असह्य।
भावार्थ - धर्मरुचि ने जब उस घृतलिप्त तूंबे का यावत् आहार कर लिया तब मुहूर्तभर के अनंतर उसका शरीर पर प्रभाव पड़ा। शरीर में बड़ी तीव्र यावत् असह्य वेदना उत्पन्न हो गई।
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