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________________ XX 0000 ******exx उन्हें जाति कुल आदि को ही बताकर अपमानित करे अथवा अन्य प्रकार से कटु अयोग्य या असभ्य वचनों का प्रयोग कर उसकी हिलना निंदा करे तो साधक को उस पर लेशमात्र भी द्वेष नहीं करना चाहिये, बल्कि उसके प्रति करुणा भाव उत्पन्न होना चाहिये । इसके लिए समुद्र के किनारे स्थित दावद्रव वृक्षों के दृष्टान्त देकर साधक की सहनशीलता को चार विकल्प क्रमशः देश विराधक, सर्व विराधक, देशाराधक और सर्वाराधक में निरूपित किया है। [15] बारहवाँ अध्ययन इस अध्ययन का मुख्य विषय पुद्गल एवं उनके परिणमन से सम्बन्धित है। जो पुद्गल आज शुभ नजर आते हैं, वह संयोग पाकर कालान्तर में अशुभ में परिणत हो जाते हैं, इसी प्रकार जो पुद्गल वर्तमान में अशुभ दृष्टिगोचर होते हैं वे संयोग पाकर कालान्तर में शुभ में परिणत हो जाते हैं। इस गूढ़ तत्त्व को बाहिरात्मा तो समझ नहीं सकती है। इस रहस्य को तो जैन दर्शन के तत्त्वेत्ता ही समझ सकते हैं। - प्रस्तुत कथानक में जितशत्रु राजा और उसके प्रधान सुबुद्धि का संवाद है। सुबुद्धि प्रधान • जीवाजीव रहस्यों को जानने वाला तत्त्वज्ञ श्रमणोपासक था जबकि उसका राजा जितशत्रु जिनधर्म से अनभिज्ञ मिथ्यादृष्टि था। सुबुद्धि प्रधान ने खाई के गंदे दुर्गन्ध युक्त पानी को प्रयोग द्वारा शुद्ध स्वादिष्ट में परिणत कर राजा को यथार्थ तत्त्व से अवगत कराया। इस पर राजा ने जिज्ञासा प्रकट की हे मंत्रीवर! यह बताओं कि आपने यह सत्य तथ्य कैसे जाना ? सुबुद्धि ने उत्तर दिया स्वामी! इस सत्य तथ्य का परिज्ञान मुझे जिनवाणी से हुआ। इस पर राजा ने उनसे जिनवाणी श्रवण की अभिलाषा प्रकट की। सुबुद्धि प्रधान में राजा को जिनवाणी का स्वरूप समझाया। इसके पश्चात् जितशत्रु राजा एवं सुबुद्धि प्रधान ने स्थविर भगवन्तों के पास दीक्षा अंगीकार की और मोक्ष के अक्षय सुखों को प्राप्त किया। - तेरहवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में मुख्यतः तीन बिन्दुओं पर प्रकाश डाला गया है. १. सद्गुरुओं के समागम से आत्मिक गुणों का विकास होता है। २. लम्बे काल तक सद्गुरुओं का समागम न होने से तथा मिथ्यादृष्टियों के परिचय में रहने से जीव के आत्मिक गुणों का ह्रास होता है यावत् वह मिथ्यात्व में पहुँच जाता है। ३. आसक्ति पतन का कारण है। Jain Education International नंदमणिकार श्रमणोपासक था, कालान्तर में लम्बे समय तक साधु का समागम न होने से वह विचारों से च्यूत हो गया । अर्थात् पौषध अवस्था में बावड़ी बगीचा आदि के निर्माण का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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