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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපා परिग्गहे पच्चक्खाए। तं इयाणिपि तस्सेव अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि जावजीवं सव्वं असणं ४ पच्चक्खामि जावजीवं जंपि य इमं सरीरं इटं कंतं जाव मा फुसंतु एयंपिणं चरिमेहिं ऊसासेहिं वोसिरामि त्तिकट्ट।
शब्दार्थ - अत्थामे - अस्थिर, गमनशक्ति रहित, ऊसासेहिं. - श्वासोच्छ्वास। __ भावार्थ - वह दर्दुर अस्थिर-चलने-फिरने में असमर्थ, अबल पुरुषार्थ पराक्रमविहीन हो गया। यह सोचकर कि अब जीवन नहीं टिकेगा, वह सरकता हुआ एकांत में गया। हाथ-जोड़, मस्तक पर अंजलि कर, तीन बार घुमाकर वह बोला-उन अरहंत भगवन्तों को यावत् जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया है, नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर स्वामी को यावत् जो मोक्ष प्राप्ति हेतु समुद्यत हैं, नमस्कार हो। पहले भी मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास स्थूल रूप में प्राणातिपात हिंसा का यावत् परिग्रह पर्यंत प्रत्याख्यान किया। इस समय मैं उन्हीं को समुद्दिष्ट कर समस्त प्राणातिपात यावत् समग्र परिग्रह पर्यंत प्रत्याख्यान करता हूँ-जीवन भर के लिए समस्त अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य का प्रत्याख्यान करता हूँ। मेरा शरीर जो मेरे लिए प्रिय और कांत रहा है, रोगादि इसका स्पर्श भी न करें, ऐसा मैं चाहता रहा हूँ, उसका भी मैं अन्तिम श्वासोच्छ्वास पर्यंत प्रत्याख्यान-त्याग करता हूँ। इस तरह दर्दुर ने संपूर्ण प्रत्याख्यान किया। , __ विवेचन - तिर्यंच गति में अधिक से अधिक पांच गुणस्थान हो सकते हैं, अतएव देशविरति तो संभव है, किन्तु सर्वविरति-संयम की संभावना नहीं। फिर नंद के जीव मंडूक ने सर्वविरति रूप प्रत्याख्यान कैसे कर लिया? मूलपाठ में जिस प्रकार से इसका उल्लेख किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि आगमकार को भी उसके प्रत्याख्यान में कोई. अनौचित्य नहीं लगता। ___इस विषय में प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेवसूरि ने अपनी टीका में स्पष्टीकरण किया है। वे लिखते हैं -
'यद्यपि सव्वं पाणइवायं पच्चक्खामि' इत्यनेन सर्वग्रहणं तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव।
अर्थात् - यद्यपि मेंढ़क ने 'सम्पूर्ण प्राणातिपात (आदि) का प्रत्याख्यान करता हूँ' ऐसा कह कर प्रत्याख्यान किया है तथापि तिर्यंचों में देशविरति हो सकती है-सर्वविरति नहीं।
इस विषय में टीकाकार ने दो गाथाएं भी उद्धृत की हैं, जिनमें इस प्रश्न पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। गाथाएं ये हैं -
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