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मण्डुक (दर्दुर) ज्ञात नामक तेरहवां अध्ययन - गौतम का प्रश्न : भ० द्वारा समाधान ७१ Saoooooooooocccccccccccccccoooooooooooooooooxx सभा में, दर्दुर सिंहासन पर, दर्दुर देव अपने चार हजार सामानिक देवों, अपनी-अपनी परिषदों से युक्त चार पट्ट देवियों के साथ, सूर्याभ देव की तरह दिव्य भोग भोगता हुआ स्थित था। यावत् वह भगवान् महावीर स्वामी के दर्शन, वंदन हेतु उपस्थित हुआ। उसने सूर्याभ देव की तरह नाटक दिखाया एवं वापस लौट गया।
विवेचन - सूर्याभ देव का वर्णन रायपसेणिय सूत्र में विस्तार से किया गया है। विशेष जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए।
गौतम का प्रश्न : भगवान् द्वारा समाधान
(४)
. भंते! ति भगवं गोयमे समणं ३ वंदइ णमंसइ वं० २ त्ता एवं वयासी-अहो णं भंते! ददुरे देवे महिहिए ६। ददुरस्स णं भंते! देवस्स सा दिव्या देविड्डी ३ कहिं गया? कहिं अणुपविट्ठा? गोयमा! सरीरं गया सरीरं अणुपविट्ठा कूडागारदिटुंतो।
भावार्थ - भगवान् गौतम ने प्रभु महावीर स्वामी को वंदन, नमन कर पूछा - भगवन्! अभी-अभी इस दर्दुर देव का ऋद्धि, द्युति, बल, यश, सुख और प्रभाव था, वह दिव्य ऋद्धि, धुति और प्रभाव कहाँ समा गया?
भगवान् ने उत्तर दिया-हे गौतम! वह देव ऋद्धि उसके शरीर में अनुप्रविष्ट हो गई-समा गई। यह कूटागार दृष्टांत द्वारा ज्ञातव्य है।
विवेचन - इस सूत्र में निर्देशित “कूटागार शाला" का दृष्टांत संक्षेप में इस प्रकार है - • कूट का अर्थ शिखर होता है। एक शिखराकार विशाल भवन था। उसके भीतर विशाल शाला थी जो लिपी-पुती एवं सुसज्जित थी। किन्तु वह भवन इस प्रकार बना था कि बाहर से भीतर का निर्माण दृष्टिगत नहीं होता था। उसके चारों ओर परकोटा था। उसके समीप बहुत बड़ी आबादी थी, बहुत लोग रहते थे।
एक बार का प्रसंग है, घोर वर्षा एवं तूफान का उपद्रव हुआ। उससे बचने के लिए वे सब लोग उस कूटागार शाला में प्रविष्ट हो गए। वहाँ जाने पर वे वर्षा एवं तूफान से सर्वथा निर्भीक हो गए।
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