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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
( १६६)
तणं से सक्के देविंदे देवराया कुंभए य राया मल्लिं अरहं सीहासणंसि पुरत्थाभिमुहं णिवेसेइ अट्ठसहस्सेणं सोवण्णियाणं जाव अभिसिंचति ।
भावार्थ - देवराज देवेन्द्र और राजा कुंभ ने मल्ली अरहंत को सिंहासन पर पूर्वाभिमुख बिठाया तथा आठ हजार सौवर्णिक आदि कलशों से उनका अभिषेक किया।
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(१७० )
तणं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सब्भिंतरं बाहिरियं जाव सव्वओ समंता परिधावति ।
भावार्थ जब मल्ली अरहंत का अभिषेक हो रहा था, उस समय कतिपय देव मिथिला
नगरी से भीतर और बाहर यावत् सब ओर ईधर-उधर आ-जा रहे थे-दौड़-धूप कर रहे थे।
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(१७१)
तए णं कुंभए राया दोच्वंपि उत्तरावक्कमणं जाव सव्वालंकारविभूसियं करे, करेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी खिप्पामेव मणोरमं सीयं वेह ते वि उवट्ठवेंति ।
भावार्थ राजा कुंभ ने दूसरी बार सिंहासन को उत्तराभिमुख रखवाया यावत् भगवान् मल्ली को सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित किया। कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया और उन्हें आदेश दिया कि शीघ्र ही मनोरमा नामक शिविका - पालखी को लाओ ।
कौटुंबिक पुरुष आज्ञानुरूप पालखी ले आए।
(१७२)
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तए णं सक्के (३) आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव अणेगखंभं जाव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह जाव सावि सीया तं चेव सीयं अणुप्पविट्ठा ।
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