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मल्ली नामक आठवां अध्ययन - विपुल दान
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(१५६) . तए णं से कुंभए राया मिहिलाए रायहाणीए तत्थ २ तहिं २ देसे २ बहूओ महाणससालाओ करेइ। तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइभत्तवेयणा विउलं असणं ४ उवक्खडेंति० जे जहा आगच्छति तंजहा-पंथिया वा पहिया वा करोडिया वा कप्पडिया वा पासंडत्था वा गिहत्था वा तस्स य तहा आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगयस्स तं विउलं असणं ४ परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति।
शब्दार्थ - महाणससालाऔ - भोजनशालाएँ, भइ - भृति-काम करने वाले को तदाक्षित जनों के लिए अन्नादि रूप पारिश्रमिक, भत्त - भोजन, वेयण - वेतन, पासंडत्था-पाषण्डस्थअन्य मतानुयायी, परिभाएमाणा - सम्मान पूर्वक देते हुए, परिवेसेमाणा - परोसते हुए। - भावार्थ - राजा कुंभक ने राजधानी मिथिला में भिन्न-भिन्न स्थानों पर अनेक भोजनशालाएँ बनवाई। वहाँ भृति, भोजन एवं वेतन पर बहुत से आदमियों को नियुक्त किया, जो विपुल मात्रा में अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य तैयार करते थे। आने वाले पंथिक, पथिक, कापालिक, कार्पटिक, परमतानुयायी, साधु-संत तथा गृहस्थजनों को वहाँ आश्वस्त विश्वस्त कर, उनके लिए विश्राम आदि की व्यवस्था कर उनके लिए सुखद आसन बिछाकर उन्हें यथेष्ट अशन-पानखाद्य-स्वाद्य पदार्थ सम्मान पूर्व देते थे, परोसते थे।
- (१६०) ___ तए णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं किमिच्छियं विपुलं असणं ४ बहणं समणाण य जाव परिवेसिज्जड़।
वरवरिया घोसिजइ किमिच्छियं दिजए बहुविहीय। . सुरअसुर देव दाणवणरिंद महियाण णिक्खमणे॥१॥whi
शब्दार्थ - सव्वकामगुणियं - सर्वकामगुणितं - सब प्रकार के सुंदर रूप, रस, गंध एवं स्पर्श युक्त-मनोनुकूल, किमिच्छयं - इच्छानुरूप, वरवरिया घोसिज्जड़ - मांगो-मांगो ऐसी घोषणा की जाती है, महियाण - अरहंतों के-तीर्थंकरों के।
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