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________________ ३७२ - ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - समतुरंगेमाणा - सटते हुए, अज्जकोदृकिरियाण - दुर्गा आदि रौद्ररूप धारिणी देवियों की, ओवाइयमाणा - मनौतियाँ मनाते हुए। ___ भावार्थ - ताड़ जैसे लम्बे पिशाच को नौकावर्तीजनों ने आता हुआ देखा। वे अत्यंत भयभीत हो गए। डर के मारे एक दूसरे से सट गए। वे बहुत से इन्द्र, स्कन्द (कार्तिकेय) रूद्र, शिव, वैश्रमण, यक्ष तथा रौद्ररूप धारिणी देवियों को उद्दिष्ट कर, सैकड़ों प्रकार की मनौतियाँ मनाने लगे। ... (६४) तए णं से अरहण्णए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एजमाणं पासइ २ त्ता अभीए अतत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिण्णमुहरागणयणवण्णे अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थं तेणं भूमि पमजइ २ त्ता ठाणं ठाइ २ त्ता करयल जाव एवं वयासी-णमोत्थुणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, जइ ण अहं एत्तो उवसग्गाओ मुंचामि तो मे कप्पइ पारित्तए, अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि तो मे तहा पच्चक्खाएयव्वे-त्ति कटु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ। शब्दार्थ - पोयवहणस्स - जहाज के, वत्थतेण - वस्त्र के छोर से, ठाणं ठाइ - स्थान पर स्थित होकर, उवसग्गओ - उपसर्ग-उपद्रव से।। भावार्थ - श्रमणोपासक अर्हन्नक ने उस पिशाच रूपधारी देव को आते हुए देखा। देखकर वह निर्भय, अत्रस्त अविचलित, असंभ्रांत, अनाकुल एवं अनुद्विग्न रहा। उसके मुंह पर और आँखों के वर्ण पर इसका कोई भीतिजनक असर नहीं पड़ा। उसके मन में दीनता या विमनस्कता का भाव उदित नहीं हुआ। उसने जहाज के एक भाग में अपने वस्त्र के छोर से भूमि का प्रमार्जन किया। वहाँ बैठा। हथेलियों पर मस्तक को रख कर हाथ जोड़े हुए वह बोला - अरहंत भगवन्तों को यावत् सिद्धि प्राप्त मुक्तात्माओं को नमस्कार हो। यदि मैं इस उपसर्ग से बच जाऊँ तो मेरे कायोत्सर्ग पारना कल्पता है। यदि मैं इस उपसर्ग से मुक्त नहीं हो पाता हूँ तो मेरा तथारूप प्रत्याख्यान यथावत् रहे। यों कहकर उसने सागार आहार-त्याग:अनशन स्वीकार किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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