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________________ ३२८ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र य से महव्वयाई उझिंयाइं भवंति से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहणं सावयाणं बहणं सावियाणं हीलणिज्जे जाव अणुपरियदृइस्सइ जहा सा उज्झिया। भावार्थ - आयुष्मान् श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी यावत् आचार्य अथवा उपाध्याय के पास मुंडित प्रव्रजित होते हैं, वे यदि पांच महाव्रतों को उज्झित कर दें-त्याग दें तो वे इस लोक में, इस भव में बहुत से श्रमण-श्रमणियों-श्रावक-श्राविकाओं के लिए अवहेलना योग्य होते हैं, यावत् इस संसार सागर में अनुपर्यटन करते हैं, बार-बार भटकते हैं। उनकी वही दशा होती है, जैसी उज्झिका की हुई। (२२) एव भोगवइयावि णवरं तस्स कुलघरस्स कंडंतियं च कोटुंतियं च पीसंतियं एवं रुच्वंतियं च रंधतियं च परिवेसंतियं च परिभायंतियं च अभिंतरियं च पेसणकारिं महाणसिणिं ठवेइ। ____ शब्दार्थ - कंडितियं - धान को साफ करने हेतु छड़ना, कोट्टंतियं - 'कूटना, पीसंतियंपीसना, रुच्चंतियं - रुचिकर बनाना, रंधतियं - रांधना, परिवेसंतियं - परोसना, परिभायंतियंपर्वादि दिनों में स्वजनों के घर मिष्ठान्न आदि बांट', अन्भितंरियं - घर के भीतर के काम, महाणसिणिं - महानस-रसोई का कार्य करने व' ।। . भावार्थ - इसी प्रकार सार्थवाह ने भोगवतिका को बुलाया। उसके साथ भी उज्झिका की तरह सब घटित हुआ। उसने अपने द्वारा दाने चबा लिए जाने की बात कही इत्यादि। अंतर यह है कि सार्थवाह ने भोगवतिका को अन्न को छड़ने, कूटने, पीसने, संवारने, रांधने, परोसने का और पर्व-दिनों में स्वजनों के गृह मिष्ठान्न बांटने का घर के भीतर के कार्य करते हुए भोजन बनाने का कार्य सौंपा। . (२३) एवामेव समणाउसो। जो अम्हं समणो वा समणी वा पंच य से महव्वयाई फोडियाई भवंति से णं इहभवे चेव बहूणं समणाणं ४ हीलणिज्जे ४ जाव जहा व सा भोगवइया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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