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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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तुम णं पुत्ता! मम हत्थाओ इमे पंच सालिअक्खए गेहाहि २ ता अणुपुव्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी विहराहि । जया णं अहं पुत्ता! तुमं इमे पंच सालिअक्खए जाएजा तया णं तुमं मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिजाएज्जासि त्तिकट्टु सुण्हाए हत्थे दलयइ २ त्ता पडिविसज्जेइ ।
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भावार्थ तत्पश्चात् स्नान किया, भोजन के मण्डप में उत्तम आसन पर वह बैठा, फिर मित्रों, स्वजनों, संबंधियों परिजनों तथा चारों पुत्रवधुओं के पीहर के लोगों का विपुल अशनपान-खाद्य-स्वाद्य आदि द्वारा सत्कार एवं सम्मान किया। अपने मित्रादि सभी जनों तथा पुत्रवधुओं के पीहर के लोगों के समक्ष उसने पाँच शालि धान के दाने लिए तथा अपनी बड़ी पुत्रवधू उज्झिका को बुलाया और कहा - 'बेटी! तुम मेरे हाथ से शालि धान के इन पाँच दानों को ग्रहण करो । क्रमशः इनका संरक्षण, संगोपन करती रहो।' 'बेटी! जब मैं तुमसे इन शालि धान के दानों को मांगू, तब मुझे दे देना' यों कहकर उसने वे दाने पुत्रवधू के हाथ में दिए और उसे वहाँ से जाने की आज्ञा दी ।
(७)
तए णं सा उज्झिया धण्णस्स तह त्ति एयमट्ठ पडिसुणे २ त्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खएं गेण्हइ २ त्ता एगंतमवक्कमइ एगंतमवक्कमियाए इंमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जयाणं ममं ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सइ तया णं अहं पल्लंतराओ अण्णे पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि - त्तिकट्टु एवं संपेहेइ, संघेहित्ता 1 पंच सालिअक्खए एगते एडे २ त्ता सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था ।
शब्दार्थ - पल्ल धान्य का प्रकोष्ठ - कोठार |
भावार्थ - उज्झित्ता ने अपने श्वसुर धन्य सार्थवाह का यह कथन स्वीकार किया। उसने सार्थवाह के हाथ से पाँच धान के दाने ग्रहण किए। वह एकांत में गई । उसके मन में यह भाव उत्पन्न हुआ, यावत् विचार आया - तात- श्वसुर के कोठे में शालि धान के बहुत से परिपूर्ण - भर हुए कोठार हैं। जब तात मुझसे ये पांच धान के दाने मांगेंगे, तब मैं किसी कोठार से अन्य पाँच
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