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________________ तुम्बा नामक षष्ठ अध्ययन - भगवान् का उत्तर rrrrr... ३११ गोयमा! जीवावि पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुव्वेणं अट्ठकम्मपगडीओ समजिणंति तासिं गरुययाए भारिययाए गरुयभारिययाए कालमासे कालं किच्चा धरणियलमइवइत्ता अहे णगरतलपइट्ठाणा भवंति। एवं खलु गोयमा! जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छंति। शब्दार्थ - महं - बड़ा, णिच्छिदं - छिद्र रहित, कुसेहि - दूब से, वेढेइ - लपेटता है, उण्हे - धूप में, उवाएणं - उपाय से, अत्थाह - अगाध, अतारं - जिसे तैरा नहीं जा सके, अपोरिसियं - अपौरुषिक-जो पुरुष की ऊँचाई से नापा न जा सके, अइवइत्ता - अतिक्रांत कर, धरणियल - धरणितल-जल के सबसे नीचे के भूतल-पैंदे पर, समजिणंति - अर्जित करते हैं, बांधते हैं। . भावार्थ - गौतम! जैसे कोई पुरुष एक बड़े, सूखे, अछिद्र-छेद रहित, अखंडित तुंबे को डाभ और कुश से ढकता है, उस पर इन्हें लपेटता है, फिर उस पर मिट्टी का लेप करता है, उसे धूप में रखता है, उसके सूख जाने पर वह दूसरी बार उस पर डाभ और दूब लपेटता है, लपेट कर मिट्टी का लेप करता है, फिर धूप में रखता है। सूख जाने पर फिर तीसरी बार वह डाभ और कुश लपेटता है, मिट्टी का लेप करता है और उसे धूप में सुखाता है। इसी प्रकार वह आगे भी क्रमशः डाभ और कुश लपेटता जाता है, मिट्टी का लेप करता जाता है और सुखाता जाता है। यावत्. वह उस पर आठ बार डाभ और कुश लपेटता है। मृत्तिका का लेप करता है, उसे सुखाता है। फिर वह उसको अगाध, न तैरे जा सकने योग्य, पुरुष प्रमाण से अमेय जल में डाल देता है। गौतम! वह तूंबा आठ लेपों के कारण भारी हो जाने से जल के ऊपरी भाग को अतिक्रांत कर पैंदे में स्थित होता है। गौतम! इसी प्रकार जीव प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य रूप अठारह पाप स्थानकों के सेवन से क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियाँ अर्जित करता है, उनका बंध करता है, उनसे भारी हो जाने के कारण वह समय आने पर-आयुष्य पूर्ण हो जाने पर मरण प्राप्त कर, भूमितल को अतिक्रांत कर, नीचे नरक तल में स्थित हो जाता है। गौतम! इस प्रकार जीव शीघ्र ही गुरुत्व-भारीपन पा लेता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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