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________________ ३०० ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र एक अर्थ मदिरा है, वहाँ दूसरा अर्थ आसव विशेष रूप दवा भी है, जिसका गहरी नींद लाने में प्रयोग किया जाता है। यहाँ वैसी ही पीने की किसी आसव रूप विशेष दवा के लिए 'मद्य' शब्द प्रयुक्त हुआ है। संयम में शैथिल्य तए णं से सेलए तंसि रोगायकसि उवसंतंसि समाणंसि तंसि विपुलंसि असण-पाण-खाइम-साइमंसि मजपाणए य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे ओसण्णे ओसण्णविहारी एवं पासत्थे २ कुसीले २ पमत्ते २ संसत्ते २ उउबद्धपीढफलगसेज्जासंथारए पमत्ते यावि विहरइ णो संचाएइ फासुएसणिजं पीढफलग-सेजा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता बहिया जाव विहरित्तए। शब्दार्थ - अज्झोववण्णे - अध्युपपन्न-सरस आहार आदि के अधीन, ओसण्णे - अवसन्न-अवसाद या असावधानी युक्त, पासत्थे - पार्श्वस्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र से पृथक्, कुसीले - कुत्सितशील युक्त-आचार विराधक, पमत्ते - प्रमाद युक्त, संसत्ते - आसक्तियुक्त, उउबद्ध - ऋतु-बद्ध-शेषकाल (मिगसर से आषाढ़ मास तक) में कल्पनीय। भावार्थ - रोग के मिट जाने पर शैलक उन विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य तथा आसव सेवन में मूच्छित, बद्ध लोलुप एवं अत्यंत आसक्त हो गया। फलतः वह अवसन्न, अवसन्न विहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ विहारी, कुशील, कुशील विहारी, संशक्त, संशक्त विहारी एवं चातुर्मास के अतिरिक्त समय में पीठ, फलक, शय्या एवं संस्तारक में प्रमत्त, आसक्त होता हुआ रहने लगा। वह प्रासुक एषणीय पीठ-फलक, शय्या-संस्तारक राजा मंडुक को वापस न लौटा कर रहने लगा तथा राजा मंडुक को कह कर बाहर जनपद विहार करने में असमर्थ हो गया। (६४) तए णं तेसिं पंथगवजाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अण्णया कयाइ. एगयओ सहियाणं जाव पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरंमाणाणं अयमेयारूवे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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