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शैलक नामक पांचवाँ अध्ययन
कृष्ण वासुदेव का परितोष
क्रमशः क्षीयमाण-क्षीण होते हुए ।
शब्दार्थ - मच्चुं - मृत्यु को, अइवयमाणं भावार्थ वासुदेव कृष्ण द्वारा यों कहे जाने पर थावच्चापुत्र उनसे बोला - " देवानुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करने के लिए आती हुई मृत्यु को, शरीर के रूप को विकृत करने वाली तथा क्षण-क्षण क्षीण करने वाली वृद्धावस्था को मिटा सकें तो मैं आपकी भुजाओं की छत्रछाया में रहता हुआ, विपुल मानव-जीवन के भोगों को भोगता रहूँ ।"
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कृष्ण वासुदेव का परितोष
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(१६)
तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे थावच्चा पुत्तं एवं वयासी - एए णं देवाणुप्पिया! दुरइक्कमणिज्जा, णो खलु सक्का सुबलिए णावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं ।
शब्दार्थ - दुरइक्कमणिज्जा - दुरतिक्रमणीय-निवारण न किए जा सकने योग्य, णिवारित्तएनिवारित किया जाना ।
भावार्थ - थावच्चापुत्र द्वारा यों कहे जाने पर कृष्ण वासुदेव बोले- "ये दुरतिक्रमणीय हैं। इनका निवारण नहीं किया जा सकता । अत्यंत बलवान् देव अथवा दानव भी इन्हें नहीं मिटा सकते। अपने पूर्वोपार्जित कर्मों के क्षय द्वारा ही इन्हें रोका जा सकता है । "
(२०)
तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हं वासुदेवं एवं वयासी- जइ णं एए दुरइक्कमणिज्जा णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वा णिवारित्तए णण्णत्थ अप्पणी कम्मक्खएणं तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! अण्णाणमिच्छत्तअविरइ कसायसंचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए ।
भावार्थ तब थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव को इस प्रकार कहा- “यदि मृत्यु आदि दुरतिक्रमणीय हैं। अति बलवान देव, दानव आदि द्वारा भी उन्हें मिटाया नहीं जा सकता। अपने कर्मक्षयों द्वारा ही उन्हें समाप्त किया जा सकता है तो देवानुप्रिय! मैं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद एवं कषाय द्वारा संचित अपने कर्मों का क्षय करने के लिए प्रव्रज्या स्वीकार करना चाहता हूँ।"
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