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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
इसका समाधान यों किया जा सकता है कि जहाँ व्यक्ति अपने से संबद्ध कला, व्यवसाय या कार्य में असाधारण, अनुपम नैपुण्य प्राप्त कर लेता है, तब वह स्वगत भाव का प्रतीक बन जाता है। अर्थात् वह भाव सूचक शब्द व्यक्ति सूचकता प्राप्त कर लेता है। इसका दूसरा समाधान यों है कि 'स्थापत्य' का अभिधा शक्ति द्वारा बोध्य अर्थ 'स्थपति विषयक कला विशेष' है। किंतु यदि वह व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो तो मुख्यार्थ का बोध होता है और तत्संबंध व्यक्तिपरक अर्थ वहाँ लिया जाता है। काव्य शास्त्र में 'कुन्ताः प्रविशन्ति' - भाले प्रवेश करते हैं, ऐसा उदाहरण आया है। भाले निर्जीव हैं, प्रवेश नहीं कर सकते । इसलिए लक्षणा द्वारा कुन्ताः का अर्थ वहाँ 'कुन्तवन्तः पुरुषाः भालेधारी पुरुष होता है । यहाँ स्थापत्य थावच्च प्रयोग इसीलिए व्यक्तिवाचक हो गया है।
इस सूत्र में माता का संकेत आया है, पिता का नहीं। इससे ऐसा अनुमान होता है या तो पिता विद्यमान नहीं थे, अथवा सारे व्यवसाय तथा कार्य व्यापार पर पिता के स्थान पर माता का प्राधान्य था। वह बहुत ही योग्य, प्रतिभाशाली और कर्म - निष्णात रही हो, ऐसा प्रतीत होता है।
एक बात और है - यहाँ उस गाहावई थावच्चा का व्यक्तिगत नाम नहीं आया है, केवल उसे 'थावच्चा' कह दिया है। इसका अभिप्राय यह है कि द्वारका नगरी में उस गौरवशीला, अत्यंत वैभव, समृद्धि एवं ऐश्वर्यशालिनी नारी की इतनी ख्याति थी कि वह अपने व्यवसाय के संकेत मात्र से ही सब द्वारा जानी जाती थी ।
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ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तुकला, भवन निर्माण, काष्ठकला इत्यादि का उसका बहुत बड़ा व्यवसाय था। वह देश-विदेश व्यापी थी। तभी तो उसे सार्थवाही कहा गया है। उसकी अपार संपदा का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उसने अपने पुत्र का बत्तीस सुंदर, सुकुमार, सुयोग्य श्रेष्ठि-कन्याओं के साथ पाणिग्रहण संस्कार करवाया था तथा बत्तीसों को ही पृथक्-पृथक् दायभाग प्रदान किया था। इस प्रसंग से यह भी व्यक्त होता है कि असाधारण योग्यता संपन्न नारियों की समाज में बड़ी प्रतिष्ठा थी । लिङ्ग-भेद का महत्व नहीं था । गुणोत्कर्ष ही सर्वोपरी था ।
अर्हत् अरिष्टनेमि का पदार्पण
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तेणं कालेणं तेणं समएणं अरहा अरिट्ठणेमी सो चेव वण्णओ दसधणुस्सेहे
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