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________________ २३२ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र · · मयूरी-प्रसव (३) तस्स णं सुभूमि-भागस्स उजाणस्स उत्तरओ एगदेसंमि मालुयाकच्छए होत्था वण्णओ। तत्थ णं एगावणमऊरी दो पुढे परियागए पिटुंडी पंडुरे णिव्वणे णिरुवहए भिण्णमुट्ठिप्पमाणे मऊरी अंडए पसवइ, पसवित्ता सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संविढेमाणी विहरइ। शब्दार्थ - पुढे - परिपुष्ट, परियागए - पर्यायागत-क्रमशः प्रसव काल प्राप्त, पिटुंडीपंडुरेचावलों के चूर्ण पिण्ड के सदृश सफेद, णिव्वणे - निव्रण-छिद्र, क्षत आदि रहित, भिण्णमुट्ठिप्पमाणे - भिन्न मुष्टि प्रमाण-बीच में से खाली या पोली मुट्ठी जितने प्रमाण युक्त, पक्खवाएणंपंखों से ढककर हवा से बचाती हुई, सारक्खमाणी - संरक्षण करती हुई, संगोवेमाणी - संगोपनउपद्रवों से परिरक्षण करती हुई, संविढेमाणी - संवेष्टन-पोषण, संवर्द्धन करती हुई। ___ भावार्थ - उस सुभूमिभाग नामक उद्यान के उत्तरी भाग में एक मालुकाकच्छ था। (उसका वर्णन औपपातिक सूत्र से ग्राह्य है।) वहाँ एक जंगली मयूरी ने दो अण्डों का प्रसव किया, जो चावलों के चूर्ण-पिण्ड जैसे श्वेत निव्रण एवं निरूपहत थे। प्रमाण में वे बीच से पोली मुट्ठी के समान थे। वह अपनी पाँखों से ढक कर उनका संरक्षण, संगोपन एवं संवर्द्धन करती थी। दो अनन्य मित्र तत्थ णं चंपाए णयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति तंजहा - जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अण्णमण्णमणुरत्तया अण्णमण्णमणुव्वयया अण्णमण्णच्छंदाणुवत्तया अण्णमण्णहियइच्छियकारया अण्णमण्णेसु गिहेसु किच्चाइंकरणिज्जाइं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। शब्दार्थ - सहजायया - समान समय में उत्पन्न, सहवडियया - साथ ही साथ बढ़े हुए, सहपंसुकीलियया - साथ-साथ धूल में खेले हुए, सहदारदरिसी - सहदारदर्शी-एक ही समय विवाहित अथवा सहद्वारदर्शी-एक दूसरे के द्वार को देखने वाले, अण्णमण्णं - अन्योन्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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