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________________ २२६ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र इत्यादि द्वारा व्यथित होता हुआ; आयुष्य पूर्ण होने पर मरकर नरक में नारक के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका रंग अत्यंत काला था। वहाँ वह घोर वेदना अनुभव करता रहा। ___ वह विजय चोर का जीव नरक से निकलकर अनादि अनंत चतुर्गतिमय संसार रूप महाअरण्य के लम्बे मार्ग में भटकता रहेगा। . (४६) ____ एवामेव जंबू! जे णं अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे विपुलंमणि-मोत्तिय- . धण-कणग-रयण-सारेणं लुब्भड़ से वि य एवं चेव। शब्दार्थ - लुब्भइ - लुभ्यति-लुब्ध होता है। भावार्थ - आर्य सुधर्मा स्वामी ने अपने विवेचन का उपसंहार करते हुए कहा-हे जंबू! जो गृहवास का त्याग कर आचार्य अथवा उपाध्याय के पास मुण्डित होकर अनगार धर्म स्वीकार करते हैं, मुंडित होते हैं, वे यदि आगे चल कर मणि, मुक्ता, धन, स्वर्ण रत्न आदि विपुल : वैभव में लुब्ध हो जाते हैं तो उनकी दशा भी विजय चोर की तरह दुर्गति प्रदायक होती है। स्थविर धर्मघोष का पदार्पण (५०) तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा णाम थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा कुलसंपण्णा जाव पुव्वाणुपुव्विं चरमाणा जाव जेणेव रायगिहे णयरे जेणेव गुणसिलए चेइए जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति। परिसा णिग्गया धम्मो कहिओ। भावार्थ - उस काल, उस समय जातिसंपन्न कुलसंपन्न धर्मघोष नामक स्थविर भगवंत अनुक्रम से, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए, सुख पूर्वक विहार करते हुए, राजगृह नगर में आए। वहाँ गुणशील नामक चैत्य में यथा योग्य, निर्वद्य स्थान याचित कर रुके, संयम और तप से आत्मानुभावित होते हुए वर्तनशील रहे। उनका पदार्पण जानकर जनसमूह दर्शन, वंदन हेतु आया। उन्होंने धर्म देशना दी। सुनकर लोग चले गए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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