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संघाट नामक दूसरा अध्ययन - भोजन का हिस्सा देने की बाध्यता
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भावार्थ - फिर धन्य सार्थवाह ने उन विभिन्न प्रकार के भोज्य पदार्थों का आहार किया। पन्थक को वहाँ से वापस रवाना किया। पन्थक ने भोजन की पिटारी ली और वह जिधर से आया था, उधर चला गया। भोजन का हिस्सा देने की बाध्यता
(३७) तए णं तस्स धण्णस्स सत्थवाहस्स तं विपुलं असमं ४ आहारियस्स समाणस्स उच्चार पासवणे णं उव्वाहित्था तए णं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी-एहि ताव विजया! एगंतमवक्कमामो जेणं अहं उच्चारपासवणं परिट्ठवेमि। तए णं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-तुब्भं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा, ममं णं देवाणुप्पिया! इमेहिं बहूहिं कसप्पहारेहि य जाव लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परन्भवमाणस्स णत्थि केइ उच्चारे वा पासवणे वा, तं छंदेणं तुमं देवाणुप्पिया! एगंते अवक्कमित्ता उच्चार पासवणं परिट्ठवेहि।
शब्दार्थ - उच्चार पासवणे - मल-मूत्र त्याग, उव्वाहित्था - बाधा शंका उत्पन्न हुई, अवक्कमामो - अवक्रात करें-चलें, परिट्ठवेमि - त्याग करूँ, परब्भवमाणस्स - पराभव पाते हुए, पीड़ित होते हुए, छंदेणं - स्वेच्छा पूर्वक।
- भावार्थ - विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि का आहार करने के कारण धन्य सार्थवाह को मल-मूत्र त्याग की शंका उत्पन्न हुई। उसने विजय चोर से कहा-'विजय! आओ एकान्त स्थान में चलें, जिससे मैं मलमूत्र त्याग कर सकूँ।' इस पर विजय चोर सार्थवाह से बोला-'देवानुप्रिय! तुमने विपुल अशन, पान आदि का आहार किया है। इससे तुम्हें मल मूत्र त्याग की शंका हुई है। मैं तो चाबुकों तथा कोड़ों आदि से बुरी तरह पीटा गया हूँ। भूखा और प्यासा हूँ, जिससे मेरे मल-मूत्र त्याग की जरा भी शंका नहीं है। देवानुप्रिय! तुम स्वेच्छा पूर्वक एकांत स्थान में जाकर मल-मूत्र का त्याग कर आओ।'
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