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संघाट नामक दूसरा अध्ययन - निःसंतान भद्रा की चिंता
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वइत्तए - कहूँ-निवेदित करूँ, जायं - याग-पूजा, दायं - दान-धनार्पण, भायं - द्रव्य भाग, अक्खयणिहिं - अक्षय निधि-अक्षयदेव द्रव्य, अणुवड्ढेमि - बढाऊँगी, उवाइयं - उपयाचितमनौती, उवाइत्तए - मनाऊँ।
भावार्थ - मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि प्रातःकाल-सूर्योदय के पश्चात् अपने पति से पूछ कर, उनसे आज्ञा प्राप्त कर, विपुल मात्रा में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पुष्प, गंध, मालाएँ आदि तैयार करवा कर-लेकर अपने जातीय, सुहृद संबंधी तथा परिजन वृन्द की महिलाओं से घिरी हुई राजगृह नगर के बाहर नाग, भूत, यक्ष, इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव तथा कुबेर - इन देवों के जो प्रतिमायतन हैं, वहाँ मैं बहुमूल्य पुष्पादि द्वारा उनका अर्चन कर, पैरों के बल घुटने झुका कर-जमीन पर टिका कर, इस प्रकार उनसे निवेदन करूँ - 'देवानुप्रिय! मैं पुत्र या पुत्री को जन्म दूं तो आपकी पूजा, द्रव्यार्पण तथा अक्षय निधि संवर्द्धन करूंगी'-इस प्रकार मैं अपनी मनौती मनाऊँ।
(१३) ___एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलंते जेणामेव धण्णे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तुन्भेहिं सद्धिं . बहूई वासाइं जाव देंति समुल्लावए सुमहुरे पुणो पुणो मंजुलप्पभणिए, तं णं अहं अहण्णा अपुण्णा अकयलक्खणा एत्तो एगमवि ण पत्ता, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाया समाणी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव अणुवड्ढेमि उवाइयं करेत्तए। ... भावार्थ - भद्रा ने पूर्वोक्त रूप में चिंतन किया तथा प्रातःकाल हो जाने पर अपने पति के पास आई एवं उनसे कहा - देवानुप्रिय! तुम्हारे साथ वर्षों से विपुल भोगमय जीवन व्यतीत करती आ रही हूँ किंतु मधुर वाणी में तुतलाते शिशु को जन्म नहीं दे पायी, इसका मुझे बड़ा दुःख है। मैं अत्यंत अधन्या, अभागिन और पुण्यहीना हूँ। इसलिए मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर विपुल अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य, वस्त्र-पुष्प आदि लेकर देवार्चन कर संतति हेतु मनौती करना चाहती हूँ।
. (१४) .. ... ___ तए णं धण्णे संस्थवाहे भई भारियं एवं वयासी - ममं पि य णं खलु
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