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________________ प्रथम अध्ययन - समाधि-मरण १८५ नहीं होती। जैन दर्शन उस मार्ग का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत करता है, जिससे जीव इस वैभाविक दशा से स्वाभाविक दशा में आए। तदनुसार कर्मों के प्रवाह का अवरोध तथा पूर्व संचित कर्मों के निर्झरण या नाश द्वारा वह सर्वथा कर्ममुक्त हो सकता है। जब समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है, तब वह उनके बंधन से छूट जाता है, उसका लक्ष्य सिद्ध हो जाता है, इसीलिए उसकी संज्ञा मुक्त या सिद्ध होती है। दर्शन की भाषा में यह शरीर भी एक बंधन है। मुक्तावस्था में यह भी छूट जाता है, किन्तु जब तक साधनावस्था होती है, इसकी उपयोगिता भी है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना में यह सहयोगी बनता है। परन्तु ज्यों-ज्यों साधक आध्यात्मिक उन्नति में आगे बढ़ता जाता है, शरीर गौण होता जाता है। तपः क्रम ज्यों-ज्यों वृद्धिंगत होता जाता है, शरीर ह्रासोन्मुख होता जाता है। जब साधक यह जान लेता है कि उसका शरीर सर्वथा अशक्त हो गया है वह दैनंदिन कार्यों को कर पाने में सक्षम नहीं है तब वह वैराग्य एवं तपश्चरण पूर्वक उसे भी त्यागने को उद्यत हो जाता है। ___ घोर तपस्वी मेघ कुमार के जीवन में ऐसा ही घटित होता है। उस समय उसका चिंतन अत्यंत आध्यात्मिक हो जाता है और वह पंडित-मरण या समाधि-मरण स्वीकार करता है। वहाँ मरण महोत्सव बन जाता है। क्योंकि जीवन का चरम, परम लक्ष्य वहाँ सिद्ध हो जाता है। समाधिमरण के लिए जैन धर्म में बड़ा ही सूक्ष्म विवेचन-विश्लेषण हुआ है। वहाँ जीवन और मरण की आकांक्षाओं से पृथक् होकर साधक एक मात्र आत्म-स्वरूप में लीन रहता है। विभावों या परभावों से विमुक्त होकर स्वभाव में सन्निरत रहने की यह बड़ी ही उत्तम, श्रेयस्कर स्थिति है। जैन शास्त्रों में समाधि मरण के तीन प्रकार बतलाए गए हैं जो-१. भक्तप्रत्याख्यान २. . इंगित मरण एवं ३. पादपोपगम के नाम से अभिहित हुए हैं। भक्तप्रत्याख्यान में ऐसा विधान है कि साधक स्वयं शरीर की देखभाल सार-संभाल करता है तथा दूसरों द्वारा समाधि मरणावस्था में दी गई निरवद्य सेवाएं स्वीकार कर सकता है। जो साधक 'इंगित मरण' स्वीकार करता है, वह स्वयं अपनी दैहिक क्रियाओं का निर्वहन करता है स्वयं अपनी सेवा करता है, अन्य किसी द्वारा दी गई निरवद्य सहायता भी स्वीकार नहीं करता। आत्म बल के उद्रेक की दृष्टि से भक्तप्रत्याख्यान की अपेक्षा इंगित मरण का वैशिष्ट्य है। ‘पादपोपगम' समाधिमरण की अत्यंत उत्कृष्ट आत्म-बल संभृत भूमिका है। वह वृक्ष की ज्यों शारीरिक दृष्टि से सुस्थिर अविचल हो जाता है अथवा जैसे वृक्ष की कटी हुई डाली भूमि पर निश्चल पड़ी रहती है, उसी तरह उसका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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