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________________ प्रथम अध्ययन - भिक्षु-प्रतिमाओं की आराधना १७१ (१९४) तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ णयराओ गुणसिलयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। शब्दार्थ - जणवयविहारं - जन पदों में विचरण। भावार्थ - तदनंतर भगवान् महावीर स्वामी ने राजगृह नगर के गुणशील चैत्य से प्रस्थान किया तथा वे विविध जनपदों में विचरण करने लगे। भिक्षु-प्रतिमाओं की आराधना (१६५) तए णं से मेहे अणगारे अण्णया कयाइ समणं भगवं महावीरं वंदड़ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-“इच्छामि णं भंते! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।" शब्दार्थ - मासियं भिक्खुपडिमं - एक मासिक भिक्षु प्रतिमा, उवसंपज्जित्ता - उपसम्पन्नअंगीकार कर, अहासुहं - जैसा सुखप्रद प्रतीत हो, पडिबंधं - प्रतिबंध-प्रमाद। भावार्थ - एक समय का प्रसंग है, मुनि मेघकुमार ने भगवान् महावीर स्वामी को वंदन, नमस्कार कर निवेदन किया - भगवन्! मैं आपसे अभ्यनुज्ञात होकर-आपका आदेश पाकर एक मासिक भिक्षु प्रतिमा को स्वीकार कर विचरना चाहता हूँ। भगवान् महावीर ने उत्तर दिया"देवानुप्रिय! जिससे तुम्हारी आत्मा में सुख हो, वैसा करो। अपनी इच्छा को क्रियान्वित करने में प्रमाद मत करो।" (१६६) . तए णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ताणं विहरइ, मासियं भिक्खु पडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहामग्गं सम्मं काएणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ किट्टेइ सम्मं काएणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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