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________________ .उपालम्भपूर्ण उद्बोधन प्रथम अध्ययन - उप ...... १६७ भावार्थ - मेघ! अनुक्रम से यथा समय गर्भवास से तुम बाहर आए। बाल्यावस्था व्यतीत होने पर युवा हुए। तुमने गृहवास का त्याग कर मेरे पास मुण्डित प्रव्रजित होकर अनगार धर्म स्वीकार किया। जरा सोचो, जब तुम तिर्यंचयोनि में थे तब तुमने आज तक प्राप्त न हुए ऐसे सम्यक्त्व रत्न को प्राप्त किया, तब भी तुमने देह खुजलाने हेतु ऊँचे उठाए हुए पैर को, देह खुजलाने के पश्चात् उस बीच खाली जगह में आए हुए खरगोश को देखकर, अनुकंपा से प्रेरित होते हुए अधर में ही रखा, नीचे नहीं टिकाया। मेघ! इस समय तो तुम उच्च कुलोत्पन्न हो। तुम्हें निरुपहत-सर्वांग सुंदर शरीर प्राप्त है। तुम पाँचों परिपूर्ण इन्द्रियों के स्वामी हो। उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम से युक्त हो। गृह त्याग कर अनगार बने हुए हो, फिर भी तुम रात्रि के पहले और अंतिम समय में वाचना, पृच्छना यावत् धर्मानुयोग के चिंतन, उच्चारप्रस्रवण के परिष्ठापन हेतु आते-जाते मुनियों के हाथों के संस्पर्श, पैरों की टक्कर एवं उससे गिरते रजकण आदि को क्षोभ तथा दैन्य रहित भाव से स्थिरता पूर्वक सह नहीं सके? . विवेचन - पनवणा आदि सूत्रों (पद १८ द्वार १९) से स्पष्ट होता है कि 'बिना सम्यक्त्व प्राप्त किये संसार परित्त होता ही नहीं है।' हाथी के भव में संसार परित्त किया है इसलिये हाथी के भव में ही सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त की, ऐसा समझना चाहिए। मिथ्यात्वीपन में अपनी रक्षा के लिए भले जिसने वनस्पति आदि की बारबार हिंसा की हो किन्तु दावानल से बचने के लिए जब वह मंडल प्राणियों से पूरा भर गया था, उस समय मृत्यु के भय एवं जीने के महत्त्व के अनुभवी उस हाथी को सभी प्राणियों पर अनुकम्पा भाव आये। भले वह जीवों के भेद प्रभेदों को नहीं जानता था, तथापि उसके अन्तर (आत्मा) में जगत् के सभी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा के भाव गहरे बन जाने से ही आगमकारों ने सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति उसे अनुकम्पा भाव वाला बताया। यदि उसकी अनुकम्पा मात्र एक खरगोश के प्रति ही होती तो दूसरे जानवरों को हटाकर उसकी जगह खरगोश को रख सकता था। वास्तव में उसकी अनुकम्पा सभी के प्रति होने से ही ऐसा नहीं किया। खरगोश को अपने शरीर पर भी रख सका था, किन्तु शरीर पर भी अनेक पशु पक्षी बैठे हुए संभव होने से उसे शरीर पर भी नहीं रख सकता। शरीर पर बैठे हुए प्राणियों के प्रति भी वही अनुकम्पा भाव था। इसलिये 'एक खरगोश को बचा कर संसार परित्त कर लिया' ऐसा नहीं समझना चाहिए एवं आश्चर्य चकित भी नहीं होना चाहिए। किन्तु ऐसा समझना चाहिए कि सम्यक्त्व के लक्षण ‘अनुकम्पा' के प्रति इतना समर्पित हो गया कि उसके पीछे अपना जीवन ही न्योछावर कर दिया। क्षणिक परिस्थिति में ही स्थिर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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