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प्रथम अध्ययन - जातिस्मरण ज्ञान का उद्भव
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णं तव मेहा! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं अज्झवसाणेणं सोहणेणं, सुभेणं परिणामेणं, तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं, ईहापोह-मग्गणगवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुव्वे जाईसरणे समुप्पजित्था। ___शब्दार्थ - अणुभूयपुव्वे - पहले अनुभव किए हुए, विसुज्झमाणीहिं - पिशुद्ध होती हुई, अज्झवसाणेणं - अध्यवसाय, सोहणेणं - शोभन, उत्तम, तयावरणिजाणं - जातिस्मरण ज्ञान को आवृत्त करने वाले, खओवसमेणं - क्षयोपशम द्वारा, ईहा - अर्थाभिमुख वितर्क, अपोह - सामान्य ज्ञान के अनंतर विशेष निश्चयार्थक विचार, मग्गण - मार्गण-यथावस्थित स्वरूप का अन्वेषण, गवेसणं - अन्वेषण से प्राप्त ज्ञान के स्वरूप पर विमर्श, जाइसरणे - जातिस्मरण ज्ञान, समुप्पजित्था - समुत्पन्न हुआ।
. भावार्थ - एक बार का प्रसंग है, ग्रीष्मकाल के समय, जेठ के महीने में दावानल की ज्वालाओं से वन प्रदेश जल उठे। सर्वत्र धुआँ फैल गया। तुम उसमें भीत, त्रस्त होकर बहुत से हाथियों और हथिनियों से घिरे हुए, ईधर-उधर भटकते हुए, भिन्न-भिन्न दिशाओं में पलायन करने लगे। मेघ! दावाग्नि को देखकर तुम्हारे मन में ऐसा भाव उत्पन्न हुआ, चिंतन चला-ऐसा प्रतीत होता है, इस प्रकार के अग्नि प्रकोप का मैंने पहले अनुभव किया है। ऐसा सोचते हुए तुम्हारी लेश्याएँ विशुद्ध होने लगीं, अध्यवसाय प्रशस्त होने लगा, योग शुभ होने लगा। जातिस्मरण. ज्ञान उत्पन्न हुआ, जो संज्ञी जीवों को प्राप्त होता है।
. (१७६) . __तए णं तुमं मेहा! एयमढें सम्मं अभिसमेसि-एवं खलु मया अईए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे वेयडगिरिपायमूले जाव तत्थ णं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूए। तए णं तुमं मेहा! तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्ह-कालसमयंसि णियएणं जूहेणं सद्धिं समण्णागए यावि होत्था। तए णं तुम मेहा! सत्तुस्सेहे जाव सण्णिजाइस्सरणे चउइंते मेरुप्पभे णामं हत्थी होत्था।
शब्दार्थ - अभिसमेसि - अभिज्ञात किया, णियएणं - निजी-अपने, समण्णागए - इकट्ठे हुए, सण्णिजाइस्सरणे - जातिस्मरण युक्त।
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