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________________ ၃၃ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र शब्दार्थ - कप्पइ - कल्पता है-ग्राह्य है, आहाकम्मिए - आधाकर्मिक-साधुओं के लिये संकल्पित, उद्देसिए - साधुओं के उद्देश्य से बनाया गया, कीयगडे - साधु के निमित्त मूल्य से गृहीत, ठवियए - स्थापित-साधु के लिये रखा हुआ, रइयए - रचित-फूटे हुए मोदक आदि के चूरे को फिर साधु के लिए मोदक आदि के रूप में तैयार करना, दुन्भिक्खभत्ते - दुष्काल के समय साधु के लिए बनाया गया भोजन, कंतारभत्ते - निर्जनवन में आगतजनों के लिए बनाया गया भोजन, वद्दलियाभत्ते - वर्षाकाल में याचकों के लिये बनाया गया भोजन, गिलाणभत्ते - रोगी के लिए बनाया गया भोजन, भोत्तए- खाने के लिए, पायए- पाने योग्य, सुहसमुचिए - सुख समुचित-सुख पाने योग्य, दुहसमुचिए - दुःख सहने योग्य, णालं - असमर्थ, सीयं - शैत्य-सर्दी, उण्हं - गर्मी, पिवासं - प्यास, वाइय-पित्तिय-सिंभिय- वात, पित्तं एवं कफ से उत्पन्न होने वाले रोग, सण्णिवाइय - सन्निपातिक-वातादि तीनों दोष के संयोग से उत्पन्न प्रलापादि रोग, रोगायंके - रोग तथा आतंक-अकस्मात घातक बीमारियाँ, उच्चावए - छोटेबड़े अनेक प्रकार के, गामकंटए- इन्द्रियप्रतिकूल, परीसह - परीषह-कर्म निर्जरा हेतु भूख प्यासादि के कष्टों को सहना, उवसग्गे- उपसर्ग-अन्यों द्वारा दिए जाने वाले कष्ट, उदिपणे - : उदीर्ण-उदयावलि प्रविष्ट-उदय में आए हुए, सम्म-सम्यक्, अहियासित्तए-सहन करने के लिए। भावार्थ - पुत्र! श्रमणों-निर्ग्रन्थों को आधाकर्मिक, औद्देशिक, कयक्रीत, स्थापित, रचित तथा मूल, कंद, बीज, फल, हरित आदि अग्राह्य तथा सदोष आहार लेना, सेवन करना नहीं कल्पता। पुत्र! तुम तो सुख भोगने योग्य-सुखाभ्यासी हो, दुःख भोगने योग्य-दुःखाभ्यासी नहीं हो। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास, वात-पित्त-कफादि जनित रोग, इन्द्रिय प्रतिकूल परीषहों एवं उपसर्गों को सहना तुम्हारे द्वारा संभव नहीं है। अतः तुम सांसारिक काम-भोगों का भोग करो। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना। (१३०) तए णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरं एवं वयासीतहेव णं तं अम्मयाओ! जं णं तुन्भे ममं वयह-एस णं जाया! णिग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे पुणरवि तं चेव जाव तओ पच्छा भुत्तभोगी समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! णिग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं-इहलोग-पडिबद्धाणं परलोग-णिप्पिवासाणं दुरणुचरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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