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________________ [14] एक बार वह देवी इन्द्र के आदेशानुसार लवण समुद्र की सफाई के लिए गई। दोनों भाई उसकी अनुपस्थिति में दक्षिण दिशा की ओर गए वहाँ उन्होंने एक पुरुष को शूली पर चढ़े हुए देखा। पूछने पर पता चला वह भी उन्हीं की तरह देवी में चक्कर में फंस गया। उससे छुटकारा पाने का उपाय पूछने पर उसने बताया कि पूर्व के वनखण्ड में एक शैलक नामक यक्ष रहता है, वह निश्चित समय पर “किसे तारूँ किसे पालूं?" की घोषणा करता है, उस समय आप उसे तारने की याचना करना ताकि वह आपको बचा सकेगा। दोनों भाईयों ने वैसा ही किया। शैलक यक्ष ने उन दोनों भाइयों को इस शर्त पर तारना पालना स्वीकार किया कि रत्नादेवी उन्हें अनेक तरह से ललचाएगी, मीठी-मीठी बातों में अपनी ओर विषय भोगों के लिए आकर्षित करेगी, तुम उस प्रलोभन में न आओ तो मैं तार सकता हूँ। दोनों भाइयों ने यक्ष की बात को स्वीकार की। यक्ष ने दोनों को अपनी पीठ पर बैठा कर समुद्र मार्ग से ले गया। इस बात की रत्नादेवी : को जानकारी हुई तो वह तुरन्त समुद्र में तीव्र गति से गई और दोनों भाइयों को अपनी ओर इन्द्रिय सुखों की ओर ललचाने का प्रयास एवं विलाप किया। जिनपालित तो उसकी बातों से विचलित नहीं हुआ। किन्तु जिनरक्षित का मन विचलित हो गया। यक्ष ने उसके मनोमन भावों को जानकर उसे गिरा दिया। निर्दया हृदया रत्नादेवी ने उसे तलवार पर झेल कर उसके टुकड़ेटुकड़े कर दिये। जिनपालित ने अपने मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण रखा तो सकुशल चम्पानगरी पहुंच गया। इन्द्रियों और मन पर काबू न रखने वाला जिनरक्षित रत्ना देवी द्वारा मार डाला" गया। आगमकार यह दृष्टान्त देकर इन्द्रियों एवं मन पर काबू रखने का संकेत करते हैं। दसवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में चन्द्रमा की कला के घटने-बढ़ने का कथानक है। आगमकार संयमी साधक को विकास और ह्रास को इस कथानक के द्वारा घटित कर संकेत करते हैं कि जो संयमी साधक साधु के क्षमा आदि दस श्रमण धर्म का यथाविध पालन करता है उसका विकास शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह होता है। इसके विपरीत जो संयमी साधक संयम ग्रहण करके श्रमण धर्म के गुणों का यथाविध पालन नहीं करता है, अथवा उपेक्षा करता है, उसका संयमी जीवन कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा की भांति दिन-प्रतिदिन ह्रास की ओर गिरता हुआ एक दिन अमावस्या के चन्द्रमा के समान पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है। ... ग्यारहवाँ अध्ययन - इस अध्ययन में संयमी जीवन की सहनशीलता-सहिष्णुता की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। संयमी साधक को अपने संयमी जीवन के दौरान यदि कोई Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004196
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages466
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size9 MB
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