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धन्य सार्थवाह और उसकी पत्नी भद्रा को बड़ी मनौती के बाद एक पुत्र की प्राप्ति हुई। एक दिन भद्रा ने अपने पुत्र को नहला-धुलाकर अनेक आभूषणों से सुसज्जित कर अपने पंथक नामक दास चेटक को खिलाने के लिए दिया। पंथक उसे एक स्थान पर बिठा कर स्वयं खेलने लग गया। उधर विजय चोर गुजरा उसने उस बालक को आभूषणों से लदा देख उठा कर ले गया और गहने उतार कर बालक को अंध कूप में डाल दिया। नगर रक्षकों ने विजय चोर को पकड़ा और कारागार में डाल दिया। इधर कुछ समय बाद किसी के चुगली खाने पर एक साधारण अपराध में धन्य सार्थवाह को भी राजा ने कारागार में डाल दिया। विजय चोर और धन्य सार्थवाह दोनों एक ही बेड़ी में डाल दिए गए।
धन्यसार्थवाह की पत्नी भद्रा सेठ के लिए विविध प्रकार का भोजन तैयार करके अपने नौकर के साथ कारागार में भेजती। उस भोजन में से विजय चोर ने सेठ से कुछ हिस्सा मांगा तो सेठ ने अपने पुत्र का हत्यारा होने के कारण भोजन देने से इन्कार कर दिया। थोड़ी देर बाद सेठ को मल-मूत्र विसर्जन की बाधा उत्पन्न हुई। तो विजय चोर सेठ के साथ जाने को तैयार नहीं हुआ। वह बोला-तुमने भोजन किया है, तुम्ही जाओ, मैं भूखा प्यासा मर रहा हूँ। मुझे कोई बाधा नहीं है इसलिए मैं नहीं चलता। धन्य विवश होकर बाधा निवृत्ति के लिए दूसरे दिन से अपने भोजन का कुछ हिस्सा- विजय चोर को देना चालू कर दिया। दास चेटक ने यह बात घर जाकर सेठ की पत्नी भद्रा को कही, तो वह बहुत नाराज हुई। _कुछ दिन पश्चात् सेठ कारागार से छूट कर घर गया तो बाकी सभी लोगों ने तो उसका स्वागत किया, किन्तु पत्नी भद्रा पीठ फेर कर नाराज होकर बैठ गई। धन्य सार्थवाह के नाराजी का कारण पूछने पर भद्रा ने कहा कि मेरे लाडले पुत्र के हत्यारे वैरी विजय चोर को आप आहार-पानी में से हिस्सा देते थे, इससे मैं नाराज कैसे न होऊ? धन्य सार्थवाह ने सेठानी भद्रा की नाराजी का कारण जानकर उसे समझाते हुए कहा कि मैंने उस वैरी को भोजन का हिस्सा तो दिया पर धर्म समझ कर, कर्तव्य समझ कर नहीं दिया, प्रत्युत मेरे मल-मूत्र की बाधा निवृत्ति में वह सहायक बना रहे इस उद्देश्य से मैंने उसे हिस्सा दिया। इस स्पष्टीकरण से भद्रा को संतोष हुआ। वह प्रसन्न हुई।
इस कथानक के माध्यम से प्रभु संयमी साधक को संकेत करते हैं कि जैसे धन्य सार्थवाह ने ममता प्रीति के कारण विजय चोर को आहार नहीं दिया, मात्र अपने शरीर की बाधा निवृत्ति
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