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________________ ६९ तृतीय प्रतिपत्ति - विजया राजधानी का वर्णन memorrorestrolorer. 00000000.............................. वह उपकारिकालयन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से घिरा हुआ है। पद्मवरवेदिका और वनखंड का वर्णन पूर्वानुसार कह देना चाहिये यावत् वहां वाणव्यंतर देव देवियां अपने पूर्वकृत शुभ कर्मों का कल्याणकारी फल भोगते हुए विचरते हैं। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कंभ (घेरे) वाला और उपकारिकालयन की परिधि के समान (३७९५ योजन से कुछ अधिक) परिधि वाला है। उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं उनका वर्णन पूर्ववत् कह देना चाहिये। उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रातिछत्र-छत्रों पर छत्र हैं। उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् वह मणियों से सुशोभित हैं। मणियों का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिये। मणियों के गंध, रस और स्पर्श का कथन कर देना चाहिये। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य भाग में एक बड़ा मूल प्रासादावतंसक कहा गया है। वह प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन का ऊंचा और इकतीस योजन एक कोस की लंबाई चौड़ाई वाला है। वह सब ओर से निकलती हुई प्रभा किरणों से हंसता हुआ सा लगता है आदि वर्णन पूर्वानुसार समझ लेना चाहिये। उस प्रासादावतंसक के अंदर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् मणियों का स्पर्श और भीतों पर विविध चित्र लगे हुए हैं। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता, सा य एगं जोयणमायामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा॥ तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एगे महं सीहासणे पण्णत्ते, एवं सीहासणवण्णओ सपरिवारो, तस्स णं पासायवडिंसगस्स उप्पिं बहवे अट्ठमंगलया झया छत्ताइछत्ता। से णं पासायवडिंसए अण्णेहिं चउहिं तहधुच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिंसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, ते णं पासायवडिंसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं च उड्डूं उच्चत्तेणं अद्धसोलसजोयणाई अद्धकोसं च आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गय० तहेव, तेसि णं पासायवडिंसयाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया॥ __ भावार्थ - उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन की लम्बी चौड़ी और आधा योजन की मोटाई वाली है। वह सर्वमणिमय, स्वच्छ, मृदु यावत् प्रतिरूप हैं। उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है, सपरिवार सिंहासन का वर्णन कह देना चाहिये। उस.प्रासादावतंसक के ऊपर बहुत से आठ आठ मंगल और छत्रातिछत्र कहे गये हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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