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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - विजया राजधानी का वर्णन ६७ दिखाई देते हैं इत्यादि वनखण्ड का सारा वर्णन कह देना चाहिए यावत् वहां बहुत से वाणव्यंतर देव और देवियां स्थित होती हैं, लेटती हैं, ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीड़ा करती हैं, कामक्रीड़ा करती हैं और अपने पूर्वजन्म के सद्अनुष्ठानों का, तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फल विपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। विवेचन - वनखण्डों का परकोटा बगीचे की बाउन्ड्री (सीमा) की तरह समझना चाहिये। तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा बाव४ि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसिया तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमलया, भत्तिचित्ता भाणियव्वा, तेसि णं पासायवडिंसगाणं बहुमझदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णावासो सपरिवारा, तेसि णं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अट्ठमंगलया झया छत्ताइछत्ता। तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्टिइया परिवसंति, तंजहा-असोए सत्तवण्णे चंपए चूए॥ तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडिंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्चं जाव विहरंति॥ - भावार्थ - उन वनखण्डों के ठीक मध्य भाग में अलग अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊंचे, इकतीस योजन और एक कोस के लम्बे चौड़े हैं। ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों अथवा श्वेत प्रभा पटल से हंसते हुए प्रतीत होते हैं इत्यादि सारा वर्णन कह देना चाहिये यावत् उनके अंदर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग हैं. भीतरों छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं। उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्य भाग में अलग अलग सिंहासन कहे गये हैं। उनका वर्णन पूर्वानुसार समझना चाहिये यावत् सपरिवार सिंहासन तक कह देना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ आठ मंगल हैं ध्वजाएं हैं और छत्रातिछत्र-छत्रों पर छत्र हैं। ..... वहां चार देव रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं- अशोक, सप्तपर्ण, चंपक और आम्र। वे अपने अपने वनखण्ड का, अपने अपने प्रासादावतंसक का, अपने अपने सामानिक देवों का, अपनी अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी अपनी परिषदाओं का और ।' अपने अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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