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________________ ५४ जीवाजीवाभिगम सूत्र •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• पयरगमंडिया जाव चिटुंति, तेसि णं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अट्टमंगलगा पण्णत्ता सोत्थिय तहेव जाव छत्ता॥१३०॥ कठिन शब्दार्थ - विजयदूसे - विजयदूष्य (वस्त्र विशेष), संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसण्णिगासा - शंख, कुंद (मोगरे का फूल) जलबिंदू, क्षीरोदधि के जल को मथित करने से उठने वाले फेन-पुंज के समान सफेद, कुंभिका - कुम्भिका (मगध देश प्रसिद्ध प्रमाण विशेष), मुत्तादामा - मोतियों की माला, अट्ठट्ठमंगलगा - आठ आठ मंगल। भावार्थ - उन सिंहासनों के ऊपर अलग-अलग विजयदूष्य कहे गये हैं वे विजयदूष्य शंख, कुंद, जलबिंदू, अमृत को मथित करने से उठने वाले फेन-पुंज समान श्वेत हैं,-सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन विजयदूष्यों के ठीक मध्य भाग में अलग अलग वज्रमय अंकुश (हुक तुल्य) कहे गये हैं। उन वज्रमय अंकुशों में अलग-अलग कुंभिका प्रमाण मोतियों की मालाएं लटक रही हैं। वे कुंभिका प्रमाण मोतियों की मालाएं अन्य उनसे आधी ऊंचाई वाली अर्द्धकुंभिका प्रमाण चार-चार मोतियों की मालाओं से चारों ओर से वेष्ठित हैं। उन मुक्तामालाओं में तपनीय स्वर्ण के लंबूसक हैं वे आसपास स्वर्ण प्रतरक से मंडित हैं यावत् अतीव-अतीव शोभा से शोभायमान हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं-स्वस्तिक यावत् छत्र। विवेचन - उपर्युक्त सूत्र में कुंभ प्रमाण मुक्ता का वर्णन है। वे कितने बड़े हैं इसका उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु यह भी मगधदेश प्रसिद्ध एक माप विशेष है। जैसे आज भी कलशी होती है। अनुयोगद्वार सूत्र में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट कुंभ बताया है इसमें से किसी एक कुंभ प्रमाण ये मुक्ता (मोती) हो सकते हैं। अर्थ वाली किसी प्रति में कुंभिका को ४० मन प्रमाण एवं अर्ध कुंभिका को २० मन प्रमाण बताया गया है। परन्तु इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेव इस प्रकार फरमाया करते थे कि यहां पर जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट कुंभ में से कौनसा कुंभ विवक्षित है, यह मालूम नहीं होने से चालीस मन का प्रमाण निश्चित नहीं कहा जा सकता है। सभी देवों के मुक्ता कुंभ प्रमाण होते हुए भी व्यंतर आदि देवों के बड़े व वैमानिक देवों के छोटे भी हों तो भी बहुमूल्य होने से बाधा नहीं है। अतः सभी के कुंभिका मुक्ता दाम (कुंभिका प्रमाण मोतियों की माला) बताये हैं। __विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णत्ता, ते णं तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अट्ठमंगलया य छत्ताइछत्ता॥ तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सालभंजियाओ पण्णत्ताओ, जहेव णं हेट्ठा तहेव॥ तेसि णं तोरणाणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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