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________________ तृतीय प्रतिपत्ति - जंबूद्वीप के द्वारों का वर्णन भावार्थ - उस विजय द्वार के दोनों ओर दो नैषेधिकाओं में दो घंटाओं की कतारे कही गई हैं। उन घंटाओं का वर्णन इस प्रकार है - वे घंटाएं सोने की बनी हुई और वज्रमय लालाओं-लटकन वाली हैं, उन घंटाओं के पार्श्व भाग अनेक मणियों के बने हुए हैं, तपे हुए सोने की उनकी सांकले हैं, घंटा बजाने के लिए खींची जाने वाली रज्जु चांदी की बनी हुई है। उन घंटाओं का ओघस्वर है (एक बार बजाने पर बहुत देर तक उनकी ध्वनि सुनाई पड़ती है) मेघ के समान गंभीर स्वर हैं, हंस के स्वर के समान मधुर है, क्रोंच पक्षी के स्वर के समान कोमल है, उनका नंदिस्वर है, नंदिघोष है, सिंह स्वर है, मंजु स्वर है, मंजुघोष है। उन घंटाओं का स्वर अत्यंत श्रेष्ठ है उनका स्वर और निर्घोष अत्यंत सुहावना है। वे घंटाएं अपने उदार, मनोज्ञ, कान और मन को तृप्त करने वाले शब्दों से आसपास के प्रदेशों को पूस्ति करती हुई अतीत अतीव शोभा से शोभायमान हैं। उस विजयद्वार की दोनों ओर स्थित नैषेधिकाओं में दो दो वनमालाओं की पंक्तियां हैं। वे वनमालाएं अनेक वृक्षों, लताओं के किसलय रूप पल्लवों-कोमल कोमल पत्तों से युक्त हैं, भ्रमरों से भुज्यमान कमलों से सुशोभित हैं। ये वनमालाएं प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीय, सुखरूप और बहुत सुखरूप हैं तथा अपनी उदार, मनोज्ञ, नाक और मन को तृप्त करने वाली गंध से आसपास के प्रदेशों को पूरित करती हुई अतीव अतीव शोभा से शोभायमान है। विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता, ते णं पगंठगा चत्तारि जोयणाइं आयामविक्खंभेणं दो जोयणाई बाहल्लेणं सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा॥ तेसि णं पगंठगाणं उवरि पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा चत्तारि जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसियपहसियाविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउछुर्यविजयवेजयंतीपडागच्छत्ताइच्छत्तकलिया-तुंगा गगणतलमभिलंघमाणा( णुलिहंत )सिहरा जालंतररयणपंजरुम्मिलियव्व मणिकणगथूभियागा वियसियसयवत्तपोंडरीय-तिलयरयणद्धचंदचित्ता णाणामणिमयदामालंकिया अंतो य बाहिं च सण्हा तवणिज्जरुइलवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया ४॥ तेसि णं पासायवडिंसगाणं उल्लोया पउमलया जाव सामलोभत्तिचित्ता सव्वतवणिज्जमया अच्छा जाव पडिरूवा॥ तेसि णं पासायवडिंसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहिं उवसोभिए, मणीण गंधो वण्णो फासो य णेयव्वो॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004195
Book TitleJivajivabhigama Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2003
Total Pages422
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size9 MB
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